दुनिया भर में विकास और समृद्धि को चुनौती देती पहाड़ की नाराज़गी

लेखक- राकेश कुमार भट्ट

 

(लेखक सामाजिक विश्लेषक है। डेढ दशक से प्रकृति, पर्यावरण और मानव संसाधन प्रबंधन क्षेत्र से जुड़े हुए है और कई शोध पत्र तैयार किया है। इन विषयों पर अक्सर लिखते रहते है। यह लेख उदय भूमि के लिए लिखा है)

समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अन्तिम साँस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ये भी ध्यान देने की बात पृथ्वी के लगभग 27 प्रतिशत हिस्से पर पहाड़ विराजमान हैं, और ये पहाड़ एक टिकाऊ आर्थिक विकास की तरफ़ दुनिया की बढ़त में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं। दुनिया भर में ये पहाड़ उन  इलाक़ों में रहने वाले लगभग एक अरब 10 करोड़ लोगों की आजीविका चलाने और जीवित रहने के लिए समुचित संसाधन मुहैया कराते हैं. साथ ही पहाड़ मैदानी इलाक़ों में रहने वाले अन्य अरबों लोगों के लिए भी बहुत से फ़ायदे पहुँचाते हैं। पहाड़ मैदानी इलाक़ों में रहने वाले अरबों लोगों को भी कई तरह के फ़ायदे पहुँचाते हैं। पहाड़ ताज़ा पानी, स्वच्छ ऊर्जा, भोजन और मनोरंजन के साधन मुहैया कराते हैं।

 

अब धीरे-धीरेे पहाड़ की नाराज़गी भी समय-समय पर सामने आ रही है, कभी हिमाचल, उत्तराखंड में तो कभी कश्मीर में। पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर जून 2013 में उत्तराखण्ड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था। अब यह बात सामने आ रही है कि पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खड़ी संरचना के प्रति बेपरवाही ही हैं । पर्यटन और ऊर्जा की दृष्टि से उत्तराखंड एक उपजाऊ प्रदेश है। इस वजह से उत्तराखंड में पिछले दो दशकों में सड़कों का निर्माण और विस्तार तेजी से बढ़ा है। इसके लिए भूवैज्ञानिक फॉल्ट लाइन, भूस्खलन के जोखिम को भी हद तक नजरअंदाज किया गया है। विस्फोटकों के इस्तेमाल, वनों की कटाई, भूस्खलन के जोखिम पर कुछ खास ध्यान न देना और जल निकासी संरचना का अभाव सहित कई सुरक्षा नियमों की अनदेखी भी आपदा को न्योता दे रही है। आज के दौर में दो सौ से ज्यादा विभिन्न आकार की पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखंड में क्रियान्वयन के विभिन्न स्तरों पर हैं।

आज के भूमंडलीकरण के दौर में प्राकृतिक आपदा की बढ़ती तीव्रता कहीं न कहीं मानव और पर्यावरण का संबंध विच्छेद होने के चलते हुआ है। प्राकृतिक आपदाएं देश की उन्नति के लिए बाधक साबित होती है। जियलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का अनुमान है कि भारत की करीब 15 प्रतिशत भूमि पर भू-स्खलन का खतरा मंडराता रहता है। भूवैज्ञानिकों के मुताबिक हिमालयी क्षेत्रों में, खासतौर से रमणीय प्राकृतिक छटा वाले क्षत्रों में भू-स्खलन की आशंका सबसे ज्यादा रहती है। ऐसी आपदाएं आमतौर पर मानसून के दौरान (जून से सितंबर के बीच) आती हैं। भू-स्खलन के प्रबंधन के लिए सभी संबंधित पक्षों के बीच एक समन्वित और बहुआयामी नजरिए की जरूरत होती है जिसे चलाने के लिए आवश्यक जानकारी, कानूनी, संस्थागत व वित्तीय सहायता मुहैया कराकर बेहद कारगर बनाया जा सकता है।

भूवैज्ञानिकों का मानना है कि भारत में भू-स्खलन का पूर्वानुमान लगाने के लिए आवश्यक चेतावनी तंत्र का अभाव है। इस वजह से भारत में यह समस्या और जटिल हो जाती है। इंसानों की जान-माल की रक्षा के लिए उपयुक्त चेतावनी तंत्र की तत्काल आवश्यकता है। भू-स्खलन के जोखिम को कम करने वाले उपायों को संस्थागत रूप देने की कोशिश हो रही है जिससे इन प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली क्षति को कम किया जा सके। इन दिशानिर्देशों में सभी कार्यों को समयबद्ध तरीके से पूरा करने के लिए कई नियामक और गैर-नियामक रूप-रेखाएं तय की गई हैं। विशेषज्ञों की राय है कि आसन्न भू-स्खलन संकट के चेतावनी संकेतों के प्रति जागरुक और सतर्क समाज, इस चुनौती से निपटने में अहम योगदान कर सकता है। इनके अलावा ज्यादा-से-ज्यादा वृक्षारोपण, चट्टानों के गिरने के सर्वाधिक संभावित क्षेत्रों की पहचान और चट्टानों में आने वाली दरारों की निगरानी जैसे उपाय भी बड़े कारगर साबित होते हैं। उत्तराखंड में हुए भूस्खलन से तो यही बात सामने आती है कि पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष सतर्कता की जरूरत है। ये क्षेत्र पारिस्थितिक लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। इसलिए यहां निर्माण कार्यों को प्रतिबंधित करना होगा और वनों की कटाई रोकनी होगी।

उत्तराखंड सरकार ने जोशीमठ शहर के डेढ़ किलोमीटर इलाके को आपदाग्रस्त घोषित कर दिया है। जानमाल की सुरक्षा के लिए डेढ़ किलोमीटर के भू-धंसाव प्रभावित क्षेत्र को खाली कराया जा रहा है। सरकार ने विशेषज्ञों की टीम की सिफारिश पर यह कदम उठाया है। भू-धंसाव की समस्या के दीर्घकालिक समाधान के लिए जोशीमठ का जियो टेक्निकल और जियो फिजिकल अध्ययन कराया जाएगा। जिन क्षेत्रों में घरों में दरारें नहीं हैं, वहां भवन निर्माण के लिए गाइडलाइंस जारी की जाएगी। इस क्षेत्र का हाइड्रोलॉजिकल अध्ययन भी कराया जाएगा। लगभग 6000 फीट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित जोशीमठ का तापमान इन दिनों शून्य से भी नीचे चला जाता है। जनवरी में बर्फबारी भी होती है, इसलिए आने वाले दिनों में यह परेशानी और न बढ़े, इसको लेकर हर एहतियात बरते जा रहे हैं।

भूवैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी 4.5 अरब वर्ष पुरानी है। जाहिर है यह कई रूप ले चुकी है और रूपांतरण की क्रिया अभी भी जारी है। मानव अपने निजी लाभों के लिए हस्तक्षेप बढ़ाकर प्रकृति को तेजी से बदलने के लिए मजबूर कर रहा है और हादसे इसके भी नतीजे हैं। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटना और पृथ्वी को बचाना, साथ ही पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करना इत्यादि गुण सुशासन में आते हैं। शासन को चाहिए कि विकास और समृद्धि की ऐसी नीतियां बनाए, जो पर्यावरणीय हादसे से परे हों। इस तरह हादसे को समाप्त तो नहीं, पर कम तो किया ही जा सकता है। आपदाओं के असर को कम करने और बचाने के लिए हम सबको मिलकर प्रयत्न करना होगा। दुनिया भर में पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले समुदायों की आबादी का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए शिक्षा के प्रसार, प्रशिक्षण, रोज़गार और आधुनिकतम तकनीक मुहैया कराने से बड़ी मदद मिल सकती है,आपदा जोखिम प्रबंधन और शासन प्रणालियों को दुनिया की बेहतर सुरक्षा के लिए प्रतिक्रियाशील होने के लिए अधिक सक्रिय होना चाहिए।