भारत नेपाल की नजदीकी से पूरा होगा हिंदू राष्ट्र का सपना

लेखक- तरुण मिश्र
(लेखक समाजसेवी एवं राजनीतिक चिंतक हैं। अखिल भारतवर्षीय ब्राहण महासभा के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्व की भावना जागृत करने के लिए काम कर रहे हैं। राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर देश-विदेश में आयोजित होने वाले व्याख्यानों में एक प्रखर वक्ता के रूप में जाने जाते हैं। नेपाल और भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के लिए अभियान चला रहे हैं। विगत दो महीने में पांच बार नेपाल की यात्रा की है और नेपाल के प्रधानमंत्री राष्ट्रपति पूर्व प्रधानमंत्री सहित कई अन्य प्रमुख राजनीतिक शख्सियतों के साथ मुलाकात की। बीते दिनों काठमांडू में हुए अखिल भारतवर्षीय ब्राहण महासभा की अंतर्राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में शामिल होकर दिल्ली लौटे हैं। )

 

 

भारत और नेपाल दोनों हिंदू बाहुल्य देश हैं। लेकिन दोनों में से कोई भी देश हिंदू राष्ट्र नहीं है। दोनों देश की जनता चाहती है कि भारत और नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाये। अखिल भारतवर्षीय ब्राहण महासभा की अंतर्राष्ट्रीय कार्यसमिति की काठमांडू में हुई बैठक में यह प्रस्ताव पास किया गया कि भारत और नेपाल दोनों देशों को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाये। नेपाल पहले भी हिंदू राष्ट्र रहा है। इस मामले में भारत की मदद नेपाल करेगा और नेपाल की मदद भारत करेगा। नेपाल और भारत के बीच सिर्फ भाई-भाई का रिश्ता है। भारत और नेपाल में न तो कोई बड़ा भाई है और ना ही कोई छोटा। दोनों सगे भाई हैं। भारत में सिर्फ भाई-भाई ही नहीं बहन-बहन का भी रिश्ता है। भारत के राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हैं और नेपाल में राष्ट्रपति के पद पर बिद्या देवी भंडारी आसीन हैं। नेपाल यात्रा के दौरान मैंने नेपाल के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दो पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाल सरकार के कई वरिष्ठ मंत्रियों और सांसदों से मुलाकात किया। इन सभी से मुलाकात और बातचीत के बाद अखिल भारतवर्षीय ब्राहण महासभा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल वक्ताओं के विचार जानने के बाद मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि दोनों देशों को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में तत्काल प्रयास शुरू किये जाने की जरूरत है।

भारत और नेपाल के रिश्ते हमेशा अच्छे रहे हैं। समय-समय पर उतार-चढ़ाव आने के बावजूद दोनों देशों ने एक-दूसरे के मान-सम्मान का ख्याल रखा है। भारत-नेपाल के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता माना जाता है। दोनों देशों की संस्कृति भी एक-दूसरे के संबंधों को प्रागढ़ करती है। चीन को यह दोस्ती नागवार गुजरती रही है। वह भारत-नेपाल के मध्य दूरी बढ़ाने के लिए कोई न कोई तरकीब खोजता रहा है। इसके बावजूद ड्रैगन आज तक अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाया है। कुछ समय पहले दोनों देशों के बीच तनाव देखने को मिला था। जुबानी जंग तेज होने के कारण स्थिति काफी पेचिदा हो गई थी, मगर अब हालात तेजी से सामान्य हो रहे हैं। नेपाल के मौजूदा प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा का भारत के प्रति नरम रूख भी इसका मूल कारण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा में अच्छा वैचारिक तालमेल है। नतीजन दोनों देशों में आपसी मतभेद काफी हद तक दूर हो गए हैं। चीन की विस्तारवादी नीति और पड़ोसियों को कर्ज के मकड़जाल में फंसाने की चाल को नेपाल भी भली-भांति जान रहा है। चीन से नजदीकी के चक्कर में कई देशों की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है। ताजा उदाहरण श्रीलंका है। जहां अब तक हालात सामान्य नहीं हो पाए हैं।

ऐसे में नेपाल का भारत के साथ संबंधों को तवज्जो देना जरूरी हो गया है। नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने अप्रैल में भारत की यात्रा की थी। जुलाई 2021 में पीएम पद की शपथ लेने के बाद देउबा की यह पहली द्विपक्षीय स्तर की विदेश यात्रा स्थापित परंपराओं के मुताबिक रही। बेशक इस दौरे के परिणाम सामान्य दिखाई दें, मगर महत्वपूर्ण बात यह रही कि भारत एवं नेपाल दोनों ही विभाजनकारी मुद्दों को अलग रखने में सफल रहे। 75 वर्षीय शेर बहादुर देउबा राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। वह भारत को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। 1995 में वह पहली बार नेपाल के पीएम बने थे। पीएम के तौर पर देउबा का यह पांचवां कार्यकाल है। वह भारत-नेपाल के बीच के संबंधों की पेचीदगियों से भली-भांति वाकिफ हैं। नेपाली पीएम देउबा के भारत दौरे की सबसे बड़ी सफलता बिहार के जयनगर से नेपाल के कुर्था के मध्य रेल संपर्क का चालू होना रहा। 35 कि.मी. लंबा यह मार्ग न सिर्फ नागरिकों के लिए फायदेमंद है बल्कि दोनों देशों के बीच मजबूत कड़ी का काम कर रहा है। 1996 में पीएम के रूप में देउबा की पहली भारत यात्रा हुई थी। उस दौरान महाकाली समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। इसमें शारदा और टनकपुर बैराज के साथ-साथ करीब 6700 मेगावाट के पंचेश्वर बहुद्देशीय परियोजना को भी शामिल किया गया है।

 

दोनों ही पक्ष इसकी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट को जल्द तैयार करने पर सहमत हो गए हैं। यह परियोजना 7 अरब अमेरिकी डॉलर की है। नेपाल के आम नागरिकों का भी मानना है कि देउबा के रहते भारत एवं नेपाल के रिश्ते बेहतर हो सकते हैं। दरअसल पिछले कुछ वर्षों से दोनों देशों के बीच कई तरह के मतभेद देखने को मिले हैं। जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। दोनों देशों में राजनीतिक विमर्श भी बदल चुका है। लिहाजा साझी संस्कृति, भाषा और धार्मिक रिश्तों पर टिके विशेष संबंधों की दुहाई देकर इन मसलों को अब और दबाया अथवा नजरअंदाज करना संभव नहीं है। भारत एवं नेपाल के मध्य 1950 की शांति और मित्रता संधि रिश्तों के सबसे पुराने दस्तावेजों में से एक है। 1949 में नेपाली अधिकारियों ने मूल रूप से ब्रिटिश शासन वाले हिंदुस्तान के साथ अपने खास रिश्तों को जारी रखने के लिए ऐसे समझौते की इच्छा जाहिर की थी। इसके अंतर्गत भारत एवं नेपाल के बीच खुली सरहदों का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा नेपाली नागरिकों को भारत में काम करने की मंजूरी दी गई है। हालांकि आज इसे असमान रिश्तों के प्रतीक और भारत द्वारा अपनी मनमर्जी थोपने के तौर पर देखा जाने लगा है। 1990 के मध्य से दोनों देशों के साझा बयानों में इस समझौते की समीक्षा और उसे मौजूदा जरूरतों के हिसाब से ढालने के विचार को जगह दी जाती रही है। इस पर समय-समय पर चर्चा भी होती रही है।

हालांकि ये चर्चा गैर-सिलसिलेवार तरीके की रही है। 1997 में दोनों देशों के विदेश सचिवों के मध्य इस मसले पर वार्ता हुई थी। 2014 में साझा आयोग में दोनों देशों के बीच मंत्रिस्तरीय बातचीत भी हो चुकी है। 2016 में इस मसले पर विचार के लिए प्रबुद्ध नागरिकों का एक समूह भी बनाया गया था। इसमें कुल 8 सदस्य थे। इसकी रिपोर्ट दोनों देशों की सरकारों के पास मौजूद है। हालांकि काठमांडू में एक आम धारणा है कि यह रिपोर्ट औपचारिक तरीके से दोनों सरकारों के सुपुर्द की जानी चाहिए। दरअसल ये बात स्पष्ट तौर पर समझने की जरूरत है कि नेकनीयत इरादों वाले विशेषज्ञों द्वारा अपनी व्यक्तिगत क्षमता से तैयार की गई ये रिपोर्ट सरकारों के लिए बाध्यकारी नहीं है। ऐसी समझ होने पर ही दोनों देशों के विदेश मंत्रियों द्वारा सार्वजनिक रूप से इस रिपोर्ट की प्राप्ति को स्वीकार करना मुमकिन हो सकेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को हमेशा महत्व दिया है। पाकिस्तान की बात यदि छोड़ दी जाए तो बांग्लादेश, भूटान, ताइवान और श्रीलंका जैसे देशों का भारत को साथ मिलता रहा है।

चीन के चक्कर में पाकिस्तान और श्रीलंका बबार्दी की कगार पर खड़े हैं। जबकि भूटान और बांग्लादेश ने चतुराई दिखाई है। श्रीलंका के हश्र को देखकर कम से कम नेपाल का विवेक जरूर जागा है। वह नहीं चाहेगा कि चीन से नजदीकी बढ़ाकर भारत से रिश्तों को खराब कर लिया जाए। जानकारों का मानना है कि यही सोच नेपाल के पीएम देउबा को भारत के करीब लाने में कामयाब हो रही है। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कुछ दिन पहले बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि भारत की सोच और इरादा दुनिया पर राज करने का नहीं है। राजनाथ सिंह ने यह बयान देकर चीन पर निशाना साधा था। दरअसल वर्तमान में चीन का अपने सभी पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद चल रहा है। दूसरे की जमीन को हड़पने के लिए वह हमेशा आतुर रहता है। नेपाल कभी नहीं चाहेगा कि वह चीन की लोक-लुभावन नीतियों का शिकार होकर अपना भविष्य गर्त में ले जाए।