जीवन के उद्धार का मूल आधार शिक्षा और संस्कार

लेखिका : गरिमा पंत
(वरिष्ठ पत्रकार, समाजविज्ञानी एवं लेखिका हैं। ज्वलंत एवं महत्वपूर्ण मुद्दों पर बेबाकी से अपनी राय रखती हैं।)

मानव जीवन में शिक्षा और संस्कार का विशेष महत्व है। इनके जरिए जीवन को सफल एवं खुशहाल बनाना आसान है। शिक्षा के जरिए व्यक्ति को सही और गलत रास्ते की पहचान होती है। जबकि संस्कार के दम पर वह दूसरों को अपना बना लेता है। किसी भी कामयाब इंसान में यह दोनों गुण प्रमुखता के साथ देखने को मिलते हैं। शिक्षा और संस्कार की नींच बचपन से पड़ती है। संस्कार से मनुष्य महान बनता है, जिसने भी संस्कारों को अपनाया, वह सारे जहां का प्यारा इंसान बन जाता है। शिक्षा जीवन का अनमोल उपहार है और संस्कार जीवन का सार है।
बच्चा जब जन्म लेता है, तभी से उसके अंदर संस्कार पड़ने लगते हैं। शिक्षा एक महत्वपूर्ण उपकरण है, जो हर किसी के जीवन में बहुत उपयोगी है। शिक्षा शब्द का अर्थ होता है सीखना। सिखाना संस्कार का शाब्दिक अर्थ है। परिष्कार शुद्धता अथवा पवित्रता संस्कार में क्रिया है। इसके संपन्न होने पर कोई वस्तु किसी और उद्देश्य के योग्य बनाती है। शिक्षा व्यक्ति के जीवन को न केवल दिशा देती है, वरन दशा भी बदल देती है। आज समय बहुत तेजी से बदल रहा है। नई नई टेक्नोलॉजी विकसित हो रही हैं। शिक्षा के नए नए साधन आयाम विकसित और आविष्कृत हो रहे हैं। वर्तमान परिवेश में शिक्षा नाम मात्र की रह गई है। प्राचीन समय में शिक्षा के द्वारा नैतिक मूल्य सिखाया जाता था। शिक्षा जीवन जीने की कला सिखाती है और संस्कार हमारे जीवन को मूल्यवान बनाते हैं। शिक्षा और संस्कार को हमारे जीवन में उतारने की जिम्मेदारी किसकी है, यह एक यक्ष प्रश्न है। ज्ञान के नाम पर हम बच्चों को क्या दे रहे हैं। क्या उन्हें हम किताबी कीड़ा बना रहे हैं। शिक्षा दिन-प्रतिदिन एक बोझ बनती जा रही है।
शिक्षा के साथ-साथ बच्चों को संस्कार भी विद्यालय से मिलने चाहिए, जिससे हमारा समाज जागरूक और चेतना पूर्व समाज बन सके। संस्कार बच्चा अपने परिवार से सीखता है। उस बच्चे की परवरिश से ही उसके परिवार के बारे में सब कुछ बयां हो जाता है। शिक्षा और संस्कार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। शिक्षा और संस्कार से ही देश का निर्माण हो सकता है। समाज में अगर परिवर्तन लाना है तो शिक्षा और संस्कार पर ध्यान देना होगा। हमें बच्चों को सिखाना होगा कि बड़ों से मान-सम्मान के साथ बात करें। एक जागरूक राष्ट्र के निर्माण में गुरुकुल की पद्धति अपनानी होगी, जिसमें बच्चों को स्वावलंबी बनाना सिखाया जाता था। संस्कार मात्र कहने या बोलने से नहीं आते बल्कि यह तो व्यवहार से आते हैं, आचरण से आते हैं, सत्कर्म से आते हैं और चारित्रिक उज्जवला से आते हैं।
प्राचीन समय में हमें ज्ञान तथा नैतिक मूल्यों को सिखाया जाता था। ज्ञान और संस्कार के नाम पर हम अपने बच्चों को क्या देते हैं, यह विचारणीय प्रश्न है। इसका परिणाम जो होगा उसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। बड़े अफसोस की बात है कि भारतीय संस्कृति का पतन हो रहा है और शिक्षा की स्थिति विकृत होती जा रही है। इसे रोकने के लिए हम सबको एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना होगा, जिसमें बच्चे शिक्षा के साथ संस्कारी बनें और अपने नैतिक कर्तव्यों को समझें। सांस्कृतिक मूल्यों के विकास एवं विस्तार के लिए शिक्षा महत्वपूर्ण माध्यम है, जिसके जरिए मानव अपने अनुभूतिजन्य अनुभवों को समाज एवं उसकी नई पीढ़ी में संचारित करता है। ऋषि-मुनि जो शिक्षा देते थे, वह उनका समग्र ज्ञान था। वे संस्कृति के रक्षकों का निर्माण करते थे। कर्म से लेकर धर्म तक, नैतिक शिक्षा से चरित्र निर्माण तक, शास्त्रार्थ से युद्ध कौशल तक, व्यवहार से आचरण तक की शिक्षा दी जाती थी। अच्छा इंसान बनने, मानवीय गुणों को अपना कर समाज एवं देश की सेवा करने, सहयोग की भावना विकसित करने, सबसे हिल-मिल कर रहने की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा से मानव में चिंतन, चरित्र, व्यवहार, दृष्टिकोण को आदर्शोन्मुख किया जाता है।
शिक्षा मनुष्य में सद्भावना एवं सद्प्रवृत्ति को बढ़ाती है। शिक्षा सुसंस्कृत समाज की आधारशिला है। शिक्षा के माध्यम से मनुष्य में बौद्धिक जागृति होती है और इससे वह नवीन सांस्कृतिक मूल्यों की रचना करता है। शिक्षा बुराई से अच्छाई की ओर, हीनता से उच्चता की ओर, असंभव से संभव की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, पशुता से मनुष्यता की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करती है। यही जीवन मूल्य है, यही संस्कृति है, जिसका निर्माण शिक्षा से होता है। आज समाज में असंस्कारित व्यवहार के कारण चारित्रिक दुर्बलताएं मुखर हुई हैं। देश में सर्वत्र स्वार्थ, लोलुपता और अनैतिक आचरण नजर आता है। पाश्चात्यीकरण व भौतिकतावादी वर्चस्व ने प्राचीन संस्कारों व परंपराओं को प्रभावहीन किया है। नए वातावरण व पर्यावरण के अनुरूप नए मानक व्यवहार व संस्कारों का निर्माण नहीं किया गया है। इससे समाज में भ्रम की स्थिति कायम है। आवश्यकता है कि इस भ्रम की स्थिति को समाप्त करने के लिए प्राचीन संस्कारों एवं परिवर्तित आचरणीय मानकों के बीच समन्वय का मार्ग निकाल कर नए नैतिक, धार्मिक, प्रजातांत्रिक सामाजिक, वैयक्तिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक, मानकों को सबल किया जाए।