सत्कर्म और संस्कार से मिलती है सफलता

लेखक – नरेंद्र चौधरी
उद्यमी एवं समाजसेवी
(लेखक उद्यमी एवं समाजसेवी हैं। अध्यात्म और धर्म-कर्म विषय में विशेष रूचि रखते हैं। यह लेख उदय भूमि में प्रकाशन के लिए लिखा है।)

अध्यात्म के लिए पारिवारिक माहौल बेहद जरूरी है। हम बच्चों को जैसी शिक्षा और संस्कार देंगे, वह बड़े होकर उसी के अनुरूप खुद को ढाल लेंगे। वर्तमान समय में बच्चों को संस्कारी बनाना बेहद जरूरी है। बच्चे का संस्कार कैसा होगा यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उसे अपने परिवार से कैसे संस्कार मिले हैं। जैसे शिल्पकार जब कोई मूर्ति बनाता है तो उसकी एक अपनी सोच होती है। शिल्पकार जिस मिट्टी से देवता की मूर्ति बनाता है, उसी मिट्टी से दानव की आकृति भी बनाता है। यानी बालक कच्ची मिट्टी है और उसका परिवार शिल्पकार। माता-पिता, परिवार और पारिवारिक माहौल काफी हद तक इस बात का निर्धारण करता है कि बच्चे कितने संस्कारवान होंगे। बच्चों को कैसी सोच दी जा रही है। उन्हें जैसी सोच मिलेगी, उनकी प्रवृत्ति उसी तरह की धीरे-धीरे होती चली जाती है। इंसान में दो तरह की सोच होती है। एक सात्विक और एक तामसिक। सात्विक सोच का व्यक्ति सकारात्मक तरीके से सोचता है, वहीं तामसिक सोच वाले व्यक्ति में दानव प्रवृत्ति होती है। अध्यात्म, धर्म- कर्म और पूजा-पाठ हमें सात्विक सोच की तरफ ले जाते हैं। हम में से अधिकांश लोगों की सोच होती है कि पूजा पाठ की उम्र 50 के पार की उम्र होती है, मगर ऐसा नहीं है। हम जितनी कम उम्र से धर्म-कर्म और अध्यात्म को अपने जीवन में अपनाएंगे, उतने ही संस्कारवान बनेंगे और अच्छे कर्मों का प्रवाह अधिक होगा।

हम भगवान को हमेशा ताजा फूल अर्पित करते हैं। यह हमें यही संदेश देता है कि यदि बच्चे और युवा धर्म-कर्म एवं अध्यात्म की तरफ जाएंगे तो वह अपने आपको और अधिक मजबूत बनाएंगे। धर्म-कर्म का जीवन में विशेष महत्व होता है। धर्म-कर्म के जरिए कोई भी व्यक्ति अपना वर्तमान के अलावा भविष्य भी सुधार सकता है। पिछले जन्म के गलत कर्मों से भी मुक्ति मिल जाती है। इसके अलावा अगले जन्म को सुधारने में भी धर्म-कर्म विशेष भूमिका निभाते हैं। पूजा-पाठ करने से मन शांत रहता है। सोच सकारात्मक होने से व्यक्ति अच्छे मार्ग पर चलकर जीवन को सुखी एवं खुशहाल बना सकता है। अध्यात्म से लगाव होने पर मन को नियंत्रित करना आसान हो जाता है। मन पर कंट्रोल होने से आपकी सफलता को कोई नहीं रोक सकता। निश्चित रूप से सफलता मिल जाती है। मनुष्य के चरित्र निर्माण में खान-पान का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। यदि हम सात्विक भोजन करेंगे तो हमारा विचार सात्विक होगा। इसके इतर तामसिक भोजन करने वालों के विचार भी तामसिक होते हैं। इसीलिए कहा भी जाता है कि जैसा खाओगे अन्न वैसा रहेगा मन। धर्म-कर्म से मुंह फेर कर समाज आज पाप आत्मा बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। जबकि सत्संग व भगवत पंडाल के सान्निध्य में रहकर सत्कर्म कर हमें धर्मात्मा होने के लिए जतन करना चाहिए। जैसे-जैसे मनुष्य के पल्ले से पुण्य की पूंजी कम होती जा रही है, वैसे-वैसे वह पाप के वशीभूत होता चला जा रहा है। धर्म एवं गौ माता की सेवा से विमुख होकर मानव समाज संस्कार विहीन होकर जीवन जीने में मशगूल हो रहा है।

ईश्वर को बांधने के लिए किसी भी डोर की जरूरत नहीं होती। उन्हें बांधने के लिए प्रेम एवं भक्ति की डोर काफी है। मीरा, सूरदास व संत कबीर दास ने अपने प्रेम की डोर से परमात्मा को बंधने के लिए वशीभूत कर दिया था। परमात्मा से जुड़ने और उन्हें पाने का सबसे सरल तरीका प्रेम एवं भक्ति को माना गया है। जितना आप परमात्मा की भक्ति करेंगे, उतना ही परमात्मा भी आपके नजदीक आते जाएंगे। मानव जीवन पाप की गागर के समान है। कुमार्ग पर चलकर दिन-प्रतिदिन बुरे कर्म कर यह गागर भर जाती है। जिस दिन यह पाप की गागर फूट जाती है, उस दिन इंसान का सत्यानाश हो जाता है। पवित्र ग्रंथ इसके प्रमाण हैं की पाप की गागर कभी भवसागर पार नहीं हो पाती। भवसागर को पार करने के लिए हमें सदमार्ग पर चलकर सतकर्म करने होंगे। तब कहीं जाकर पाप की गागर पुण्य के सहारे से भवसागर पार हो पाएगी। इसलिए अच्छे कर्म करने चाहिए। फल की इच्छा भगवान पर छोड़ देना चाहिए। कर्म करने से भाग्य का निर्माण होता है। क्रोध व वाणी पर संयम रखना चाहिए। भगवान के प्रति खुद को समर्पित करना ही व्रत है। बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए। यदि ज्ञान के महत्व को माता-पिता समझेंगे तो बच्चों को खुद ब खुद अच्छे संस्कार मिल जाएंगे। शुद्धिकरण संस्कार पूर्णतया धार्मिक ही नहीं होते, बल्कि ये सामाजिक सरोकार भी रखते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे सामाजिक जीवन में होती है। संस्कार वह विधि-विधान है, जो व्यक्ति को जैविक, मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्राणी बनाने में सहायक होता है। दैनिक जीवन में धर्म-कर्म के लिए समय निकालना चाहिए। गरीब, जरूरतमंद एवं बेसहारा व्यक्तियों की हरसंभव मदद करें। अच्छे कार्यों का कभी गुणगान न करें। अच्छे कर्म करते रहे, मगर फल की चिंता न करें। चूंकि अच्छे कार्यों के परिणाम भले ही देर से मिलें, मगर मिलते अच्छे ही हैं। अपने दुख-दर्द के निवारण का जिम्मा परमात्मा पर छोड़ दें। यदि ईश्वर के प्रति आपकी सच्ची आस्था है तो एक न एक दिन आपके जीवन में खुशहाली जरूर आ जाएगी।