विजय मिश्रा
(लेखक उदय भूमि के ब्यूरो चीफ हैं। इंडियन एक्सप्रेस, जी न्यूज, दैनिक जागरण, अमर उजाला, नई दुनिया सहित कई प्रमुख समाचार पत्र एवं न्यूज चैनल के साथ काम कर चुके हैं।)
आतंकी अतीक और उसके भाई अशरफ की हत्या से भारतीय न्याय व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं। आखिर चार दशक बाद भी जब अदालत दुर्दांत अपराधियों को सजा नहीं दे पाती है तो फिर जनता किससे उम्मीद करे? राजनैतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से अपराधियों और माफियाओं का संरक्षण किया जा रहा है उससे आम जन-मानस में उबाल है। आम जनता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरीखे नेताओं की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है कि वह उन्हें आतंकी और माफिया से निजात दिलाएंगे। माफिया अतीक अहमद कई राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए आदरणीय अतीक जी रहा है। बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा कि जनाजा अतीक जी का नहीं, कानून का निकला है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अतीक और उसके भाई अशरफ पर हुए जानलेवा हमले को भारत के संविधान पर हमला करार दिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, बसपा प्रमुख मायावती और महबूबा मुफ्ती सरीखे नेताओं की फेहरिस्त लंबी है, जो अतीक-अशरफ की हत्या को लोकतंत्र की हत्या मान रहे हैं। मुसलमानों और भड़काऊ राजनीति करने वाले ओवैसी ने तो विशेष अभियान चला रखा है। यह सभी विपक्षी पार्टियां लेफ्ट लिबरल इको सिस्टम के साथ मिलकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को घेरने की फिराक में लगी हैं, लेकिन आम जनता के बीच अपने चरित्र को लेकर यह पार्टियां स्वयं घिर गई हैं। विपक्ष का विधवा विलाप उन्हें आम जनता के बीच विलेन बना रहा है। आम जनता इन पार्टियों के नेताओं और आंतकी अतीक के हमदर्दों को हिकारत भरी नजरों से देख रही है।
मुख्यमंत्री योगी ने अतीक की हत्या के मामले को गंभीरता से लिया। सीएम योगी माफिया को मिट्टी में मिलाना चाहते हैं लेकिन वह इस तरह की घटना के विरोधी हैं। अतीक मामले में मुख्यमंत्री ने न्यायिक जांच के साथ लापरवाही बरतने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई भी की है। उधर, अतीक की हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। याचिका में हत्याकांड की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति के गठन की मांग की गई है। इन्ही सबके बीच आतंकी माफिया और गुंडों के आतंक से खौफजदा जनता अतीक के पैरोकारी विपक्षी पार्टियां और भारतीय न्याय तंत्र से सवाल पूछ रही है। जनता पूछ रही है कि अतीक कब लोकतंत्रवादी था? जरा इस सवाल की व्याख्या वे नेतागण कर दें, जो आज रुदाली-प्रलाप में डूबे हैं। दुहाई यह दी जा रही है कि किसी भी अपराधी और माफिया को सजा देने का दायित्व और अधिकार अदालत और कानून-संविधान का है। हम सभी यही सोचते हैं और चाहते भी हैं कि देश कानून-संविधान से ही चले। अदालतें अपराधियों को सजा दें। लेकिन इस बात को कैसे भूल जाएं कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 10 न्यायाधीश इतने खौफजदा थे कि उन्होंने अतीक से जुड़े आपराधिक मामलों की सुनवाई से ही इंकार कर दिया था। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने अतीक के केस जिस भी न्यायमूर्ति को सुनने के लिए दिए, उसी ने हाथ खड़े कर दिए और केस किसी अन्य न्यायाधीश को रेफर करने का आग्रह किया।
नतीजतन अतीक के खिलाफ करीब 44 सालों बाद कोई अदालती फैसला आया। अतीक जैसे माफिया कानून को अप्रासंगिक और मजाक बनाते हैं। दिवंगत मुलायम सिंह यादव के संरक्षण में अतीक ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश में अपनी सल्तनत कायम की वह किसी से छिपी नहीं है। एक दुर्दांत अपराधी माननीय विधायक और सांसद बन जाता है। लूट अपहरण फिरौती के जरिये करोड़ों-अरबों की अवैध संपत्ति बनाता है। आठवीं फेल तांगेवाला अतीक के खिलाफ 100 से अधिक मुकदमें दर्ज हुए और वह चार दशक तक जुर्म की दुनिया के बेताज बदशाह की तरह आम जनता पर जुल्म ढ़ाता रहा। उस दौरान न्याय व्यवस्था और अदालतें कहां थी। हमारी न्याय व्यवस्था में कई खामियां है। कोर्ट कचहरी के चक्कर में आम जनता पिस जाती है, लेकिन आतंकियों और माफियाओं को अदालतों से बड़ी रियायतें मिल जाती है। आम जनता अदालत से पूछ रही है वह माफिया और आतंकियों के खिलाफ समय से फैसले क्यों नहीं देती। सैकड़ों लोगों की हत्या और लूटपाट करने वाले अपराधियों को जमानत कैसे मिल जाती है। यकीन मानिए कि कोई भी इंसान अपराध के संसार में अतीक अहमद तब ही बनता है जब उसे किसी रसूखदार का राजनीतिक प्रश्रय हासिल होता है। कानूनी दांव पेंच के जरिये उसे अदालत में बचाने वालों की लंबी चौड़ी फौज खड़ी रहती है। अतीक अहमद को यह राजनीतिक प्रश्रय मिला जिसके चलते वह कानून को अपने हाथ में लेता रहा। जिस अंदाज में अतीक का अंत हुआ वह माफिया और अपराधियों के लिए भी सबक है।