प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए ठोस रणनीति जरूरी

लेखक- राकेश कुमार भट्ट

(लेखक सामाजिक विश्लेषक है। डेढ दशक से प्रकृति, पर्यावरण और मानव संसाधन प्रबंधन क्षेत्र से जुड़े हुए है और कई शोध पत्र तैयार किया है। इन विषयों पर अक्सर लिखते रहते है। यह लेख उदय भूमि के लिए लिखा है)

भारत में प्राकृतिक आपदा आना कोई नई बात नहीं है। यह सिलसिला प्राचीन काल से चला आ रहा है। भारत जैसे विकासशील देश में आपदाएं ज्यादा नुकसान करती हैं। इसका प्रतिकूल असर जनजीवन पर भी पड़ता है। प्राकृतिक आपदा को रोकना संभव नहीं है, मगर कुछ जरूरी कदम उठाकर नुकसान को कम करना संभव है। इसके लिए प्रभावी एवं ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। भारत एक बहु आपदा प्रवण और बहुत ज्यादा जनसंख्या वाला देश है।

भारत में किसी भी देश के मुकाबले सर्वाधिक आपदाएं घटती हैं। भारत के लगभग 60 प्रतिशत भू-भाग भूकंप, 40 मिलियन हेक्टयेर बाढ़, कुल 5700 कि.मी. तटरेखा में चक्रवात, खेती का लगभग 68 प्रतिशत भाग सूखे के प्रति संवेदनशील है। अंडमान-निकोबार, पूर्वी व पश्चिम क्षेत्रों में सुनामी का संकट बना रहता है। देश के कई भागों में वन क्षेत्र में आग लगना आम बात है। भारत के 29 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से 27 में प्राकृतिक आपदाओं जैसे चक्रवात, भूकंप, भूस्खलन, बाढ़ और सूखे जैसी आदि का कहर निरंतर रहता है। भूस्खलन पृथ्वी पर तीसरी सर्वाधिक विनाशक प्राकृतिक आपदा है।

भारत मे सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं। जैसे जनसंख्या, औद्योगिक एवं तकनीकी विकास और साथ प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी बना है। इस विकास ने मानव जीवन को अधिक सुखी एवं समृद्ध तो बना दिया, मगर मानव जीवन पर अनेक प्रकार के संकट भी उत्पन्न हुए है। आपदा समाज की सामान्य कार्यप्रणाली में बाधा उत्पन्न करती है। आपदा के कारण जीवन तथा संपत्ति की भी बड़े पैमाने पर हानि होती है, जिससे राष्ट्र का विकास कई वर्ष पीछे खिसक जाता है। भारत जैसे विकासशील देश में अनियोजित विकास के कारण विकसित देशों की तुलना में आपदाओं के फलस्वरुप जान और संपत्ति को अधिक क्षति या नुकसान पहुंचता है। भारत में मानव प्रेरित भूस्खलनों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है।

भूस्खलन किसी भू-भाग के ढाल पर मिट्टी तथा चट्टानों के ऊपर से नीचे की ओर खिसकने, लुढ़कने या गिरने की प्रक्रिया को कहा जाता है। भूस्खलन के कारण कृत्रिम झीलों का निर्माण हो जाता है। चट्टानें और इनका मलबा नदियों में गिरता है, जिससे जलीय पर्यावरण को नुकसान पहुंचने के साथ बाढ़ भी आ जाती है, जिससे तबाही दोगुनी हो जाती है। कभी-कभी दीर्घकालिक मूसलधार वर्षा भी भूस्खलन का कारण बन सकती है। सामान्यत: भूस्खलन भूकंप, ज्वालामुखी फटने, सुनामी और चक्रवात की तुलना में बड़ी घटना नहीं है, मगर इसका प्राकृतिक पर्यावरण और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए इस प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय, राज्य एवं क्षेत्रीय स्तरों पर नागरिकों को शामिल कर व्यापक सहयोगी कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए।

भारत में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने हिमालयीय राज्यों, उत्तर पूर्व की बेल्ट, मेघालय के पठार, पश्चिमी घाट और नीलगिरी पहाड़ियों को भूस्खलन के सर्वाधिक संभावित क्षेत्रों में रखा है। इसलिए पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष सतर्कता की जरूरत है। ये क्षेत्र पारिस्थितिक लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। यहां निर्माण कार्यों, वनों की कटाई, सड़क निर्माण, पेड़ों और वनस्पखतियों को साफ किया जाना, सड़कों का गहरा कटाव या पानी के पाइपों का रिसाव भी भूस्खलन उत्पन्न कर सकते हैं। पेड़ और जंगल विभिन्न तंत्रों के माध्यम से भूस्खलन के जोखिम को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पेड़ की जड़ें मिट्टी की परतों को मजबूत करती हैं और नमी के स्तर को कम कर भूस्खलन के जोखिम को भी कम करती हैं। इसके अलावा पेड़ मिट्टी के कटाव को कम करने में मदद करते हैं और चट्टान, मलबे और मिट्टी के खिसकने के साथ-साथ भूस्खलन रन-आउट दूरी को सीमित करने के लिए एक प्रभावी अवरोध बनाते हैं। भूस्खालन होने से पहले यदि हम सब कुछ तैयारी कर ले तो इससे होने वाले नुकसान को कम करने में और जीवित बच निकलने में मदद मिल सकती है। इसके लिए ऐसे क्षेत्रों के मानचित्र तैयार करना अनिवार्य है, जहां यह आपदा प्राय: आती है। इसके लिए मजबूत दीवार निर्माण, सही इंजीनियरिंग संरचनाएं, जल अपवाह नियंत्रण, वृक्षारोपण आदि प्रभावशाली तरीका है।

यदि आपको लगे कि भूस्खएलन होने वाला है तो भूस्खालन क्षेत्रों से हट जाने में ही बेहतर सुरक्षा है। उस जगह को छोड़कर तुरंत निकलें। भूस्खहलन के बाद यह ध्यान में रखें कि अभी और भी भूस्खलन हो सकता है। प्रभावित स्थलों से तब तक दूर ही बने रहें जब तक उपयुक्त प्राधिकारी इसे बिल्कुल सही न घोषित कर दें। यदि इस आपदा में आपकी संपत्ति नष्ट हो गई हो तो बीमा उद्देश्यों के लिए इसका विवरण लिखें और फोटो खींच लें। किसी भी आपदा में बच्चे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं और ऐसी वास्तविकताओं को अक्सर योजनाओं एवं नीति निर्माण के समय में अनदेखा कर दिया जाता है। इन आपदाओं का बच्चों के जीवन पर प्रतिकूल असर होता है।

आपदाओं के दौरान हिंसा, शोषण, बाल विवाह, बाल तस्करी और बाल श्रम की घटनाओं में भी वृद्धि होती है। भू-स्खलन के बारे में नागरिकों में जागरूकता उत्पन्न करने के बारे में समुदाय स्तर पर संगोष्ठी और तैयारी करने की भी आवश्यकता है। भारत में भूस्खलन का पूवार्नुमान लगाने के लिए आवश्यक चेतावनी तंत्र का अभी भी अभाव है। भूस्खलन के लिए संवेदनशील माने जाने वाले देश के किसी भी हिस्से के इंतजाम खस्ताहाल हैं। इससे जान-माल की क्षति का खतरा और बढ़ जाता है। लिहाजा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए ठोस रणनीति पर काम करने की जरूरत है।