कानून में बदलाव की सराहना, मगर न्याय प्रक्रिया में तेजी जरुरी: केके शर्मा

न्यायधीशों से लेकर अधिवक्ताओं को भी अपनी कार्यशैली में लाना होगा बदलाव

गाजियाबाद। मासूमों से ज्यादती के बढ़ते मामलों से निपटने के लिए सरकार ने कड़ा फैसला किया है। अब 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म के दोषियों को मौत की सजा का प्रावधान किया जा रहा है। इसके लिए शनिवार को मंत्रिमंडल ने बाल यौन अपराध संरक्षण कानून पॉक्सो में संशोधन संबंधी अध्यादेश को मंजूरी दे दी। अब इसे राष्ट्रपति से मंजूरी के लिए भेजा जाएगा। सरकार के इस बड़े फैसले का वरिष्ठ समाजसेवी और सोशल चौकीदार संस्था के अध्यक्ष केके शर्मा ने सराहना करते हुए कहा कि यह काफी पहले ही यह तय हो जाना चाहिए था कि बच्चियों से दुष्कर्म पर फांसी की सजा होनी चाहिए थी। अंग्रेजों के जमाने के दासता के प्रतीक पुराने कानूनों को बदलने की प्रक्रिया सरकार ने प्रारंभ कर दी है। मगर न्यायालय से जनता को लंबे समय तक न्याय न मिल पाने के कारण करोड़ लोग चक्कर काट-काटकर मर जाते है या फिर उम्मीद ही छोड़ देते है। जिसके चलते सामान्यतया  25 वर्षों से पहले न्याय नहीं मिलता। उनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए।

हत्या, डकैती, बलात्कार जैसे मामलों में 25 से 30 वर्ष तक न्याय न मिल पाने का मतलब न्याय नही मिलना है। देश में लगभग 6 करोड़ मुकदमे विभिन्न न्यायालय में लंबित हैं, इसका मतलब है, अगर यह मानकर चलें कि एक परिवार में चार लोग होते हैं और दो परिवारों के मुकद्दमे होते है, तो 6 करोड़ मुकदमों का मतलब है कि देश की लगभग आधी आबादी न्यायालय में न्याय न मिलने के कारण परेशान है। तारीख पर तारीख का इतिहास बदलना चाहिए। अभियोजन पक्ष, पुलिस और अधिवक्ता एवं न्यायालय की भी इसके लिए जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। जिस तरह न्यायालय राजनीतिक मामलों में स्वत संज्ञान लेती हैं, और रात के 12 बजे भी कोर्ट खुल जाते हैं, वैसे ही आम जनता को न्याय दिलाने में भी न्यायालय को स्वत संज्ञान लेना चाहिए। यह तो सिर्फ आपराधिक मामलों की तस्वीर है, दीवानी विवाद में तो फैसले के इंतजार में कई-कई पीढिय़ां समाप्त हो जाती हैं। आखिरकार सरकार ने आईपीसी सीआरपीसी में बदलाव की शुरुआत की है।

उम्मीद है मोदी सरकार और भी कदम उठाएगी। लेकिन इसमें बड़ा परिवर्तन होगा यदि सीपीसी में भी बदलाव होता है। इस बदलाव में सबसे ज्यादा परिवर्तन उच्चतम न्यायालय के संज्ञान लेने से होगा, क्योंकि न्यायालय के नियम न्यायालय ही बदल सकता है, क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार न्यायाधीशों को ही है। तो अब जवाब देही भी न्यायाधीश ही तय कर सकते हैं, सरकार नहीं। न्यायालय से लोगों का न्याय दिलाने में अधिवक्ताओं कि अहम भूमिका होती है और यह उनका व्यवसाय भी है। लेकिन वह सामाजिक जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। मुकदमों में दो पक्ष होते है, जो पक्ष कानूनी तौर पर कमजोर होता है। उस पक्ष के अधिवक्ता का पूरा प्रयासरत है कि कानूनी प्रक्रिया आगे बढ़ने कि बजाय तारीख पे तारीख मिलती रहे। यह ठीक है कि ये केस लडऩा उनका पेशा है ताकि वो अपने मुवक्किल को न्याय दिल सकें और अपनी आमदनी बढ़ा सकें, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि उनकी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। इसलिए समाज के लोगों को न्याय दिलाने में विद्वान अधिवक्ता को भी पहल करनी चाहिए।