बसपा प्रत्याशी पर दल-बदलू का टैग, चुनाव मैदान में कमजोर खिलाड़ी

गाजियाबाद। विधान सभा चुनाव में गाजियाबाद सीट से बहुजन समाज पार्टी (बसपा) उम्मीदवार के.के. शुक्ला में दम-खम नजर नहीं आ रहा है। दल बदलू होने के साथ-साथ वह जनता में लोकप्रिय भी नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से टिकट न मिलने पर शुक्ला ने एकाएक बसपा का दामन थाम लिया था। उनका राजनीतिक दायर लाइनपार क्षेत्र तक सीमित रहा है। भाजपा में रहते समय भी वह कभी सुर्खियों में नहीं रहे। सियासी गलियारों में बसपा प्रत्याशी को बेहद कमजोर माना जा रहा है। गाजियाबाद विधान सभा क्षेत्र में भी चुनावी सरगर्मी जोरों पर है। गाजियाबाद सीट से बसपा ने पहले सुरेश बंसल को उम्मीदवार बनाया था। बाद में उनके स्थान पर के.के. शुक्ला को टिकट दे दिया गया। बंसल का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण शुक्ला बसपा से टिकट पाने में तो सफल हो गए, मगर चुनाव मैदान में वह कोई बड़ा कमाल करने की स्थिति में दिखाई नहीं दे रहे हैं। दल बदलू का ठप्पा लग जाने के कारण उनकी छवि को काफी नुकसान पहुंचा है।

जानकारों का कहना है कि भाजपा में लंबे समय तक रहने के बावजूद शुक्ला अपना राजनीतिक वजूद बनाने में सफल नहीं हो पाए। उन्हें भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह का करीबी माना जाता था। एक समय में स्वतंत्र देव जब परिवहन मंत्री थे तब एक मामले में संभागीय परिवहन विभाग में शुक्ला का पेंच भी फंस गया था। बाद में तत्कालीन परिवहन मंत्री के दम पर उन्हें कुछ राहत मिल पाई थी। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के नजदीकी होने के बावजूद के.के. शुक्ला को पार्टी से टिकट न मिलना चर्चाओं में है। टिकट कटने पर शुक्ला की राजनीति आस्था भी बदल गई। भाजपा छोड़कर बसपा में आए नए चेहरे को टिकट दिए जाने से कई नेता और कार्यकर्ता भी भीतरखाने संतुष्ट नहीं हैं। वह दबी जुबान से बहनजी के फैसले को गलत ठहरा रहे हैं।

कुछ बसपाइयों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि गाजियाबाद सीट पर जीत मिलने की उम्मीदें धूमिल हो चुकी हैं। बसपा का कैडर वोट बैंक भी शुक्ला को मिल जाए तो गनीमत होगी। जिस समाज में के.के. शुक्ला आते हैं, वह भी उनके सपोर्ट में नजर नहीं आ रहा है। कारण यह भी है कि लाइनपार क्षेत्र में अनेक समस्याओं का बोलबाला है। धोबी घाट-विजय नगर आरओबी आज भी लटका पड़ा है। भाजपा में रहते समय भी शुक्ला ने कभी लाइनपार क्षेत्र तक के मुद्दों को उठाने पर ध्यान नहीं दिया। भाजपा की सरकार होने के बाद भी वह स्थानीय समस्याओं का निदान कराने में आगे नहीं आए। अलबत्ता बसपा प्रत्याशी की राह आसान नहीं है।