जनसंख्या वृद्धि : जनसंख्या समस्या नहीं, आबादी को मानव संसाधन के रुप में विकसित करने पर है प्रधानमंत्री मोदी का जोर

स्वतंत्रता मिलने के बाद केंद्रीकृत नियोजन प्रक्रिया द्वारा नागरिकों की सामाजिक एवं आर्थिक दशा में सुधार होने लगा, जिससे शिशु मृत्यु दर में कमी आई थी। देश में जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए प्रयास जारी हैं। बढ़ती आबादी को बोझ न समझ कर उसे मानव संसाधन के रुप में विकसित करने की दिशा में काम करने की जरूरत है। भारत जैसे विकासशील देशों में आबादी का एक बड़ा हिस्सा उचित प्रबंधन के अभाव में बेरोजगारी की समस्या सहन करने को मजबूर है। यदि उन्हें रूचि के अनुसार प्रशिक्षित किया जाए, आवश्यक कौशल, कला, निपुणता का संचार किया जाय तो बड़ी जनसंख्या बोझ ना बनकर भारत को विकसित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकेगी।

अभय मिश्र
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं। उदय भूमि में प्रकाशित यह लेख लेखक के निजी विचार हैं। )

भारत में जनसंख्या वृद्धि हमेशा चिंता का विषय रही है। पिछले कुछ साल से आबादी पर नियंत्रण करने की मांग ने जोर पकड़ा है। इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की वकालत हो रही है। ज्यादा आबादी बड़ी परेशानी का सबब है। इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। मौजूदा आबादी के हिसाब से जीवन जीने के लिए जरूरी संसाधनों की उपलब्धता नहीं है। इस कारण नागरिकों को कष्टकारी जीवन यापन करना पड़ रहा है। बढ़ती आबादी के लिहाज से रोजगार भी कमतर साबित हो रहे हैं। नतीजन भूखमरी और बेरोजगारी को रोकना मुश्किल हो गया है। इस बीच नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस-5) की ताजा रिपोर्ट ने चौकाने वाली जानकारी दी है।

यह रिपोर्ट देश में आबादी घटने की तरफ इशारा कर रही है। यानी परिणाम एकाएक उलट आए हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि भारत में राष्ट्रीय प्रजनन दर में कमी आई है। प्रजनन दर 2.2 से घटकर 2.0 तक पहुंच गई है। ऐसा पहली बार है कि देश की राष्ट्रीय प्रजनन दर में इसनी कमी दर्ज की गई है। इस रिपोर्ट से अभी ज्यादा खुश होने की भी जरूरत नहीं है। चूंकि आबादी को कंट्रोल करने के लिए लम्बी लड़ाई की जरूरत है। दरअसल औसत प्रजनन दर में कमी की प्रवृत्ति काफी समय से नजर आ रही थी। ऐसे में यह मानना गलत नहीं होगा कि क्रमिक रूप से आया यह परिवर्तन काफी हद तक तटस्थ है। निकट भविष्य में इसके अचानक फिर ऊपर का रूख ले लेने जैसे कोई आसार नहीं हैं।

देश की जनसंख्या को लेकर अपने नजरिए में भी बदलाव लाने की आवश्यकता है। आजादी के बाद से जनसंख्या वृद्धि को एक समस्या के तौर पर देखा गया है। आपातकाल के समय जबरन नसबंदी जैसे कार्यक्रम भी सरकार ने संचालित किए थे। इस कार्यक्रम का काफी विरोध भी हुआ था। तत्कालीन सरकार की उस वक्त काफी किरकिरी हुई थी। इसके चलते बाद की सरकारों ने इस प्रकार के कार्यक्रम संचालित करने की हिम्मत नहीं जुटाई, मगर अलग-अलग स्तर पर आबादी को नियंत्रित किए जाने के प्रयास होते रहे। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जरूर जनसंख्या विस्फोट के स्थान पर डेमोग्राफिक डिविडेंड का विमर्श चलाया।

पीएम मोदी ने यह समझाने की कोशिश की कि जनसंख्या हमारी समस्या नहीं है। इसका उपयुक्त प्रयोग हो तो यह हमारे लिए सबसे बड़ा वरदान साबित हो सकती है। हालांकि इस विमर्श का धरातल पर कोई विशेष असर देखने को नहीं मिला है। कुछ संगठन आज भी बढ़ती आबादी को देश की बड़ी समस्या के तौर पर देखते हैं। इसके अलावा भाजपा शासित कुछ राज्यों ने आबादी पर नियंत्रण के लिए सख्त कानून लाने की बात भी कही है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, असम व कर्नाटक इत्यादि राज्यों में आबादी नियंत्रण कानून लाने की बात हो चुकी है। ज्यादा आबादी बड़ा बोझ बन जाती है। यह उपलब्ध संसाधनों और पर्यावरण पर भी दबाव डालती है।

बढ़ती आबादी की जरूरतों की पूर्ति के लिए पर्यावरण क्षरण की प्रक्रिया निरंतर जारी है। कृषिगत और औद्योगिक उत्पादन की आशा में व्यापक पैमाने पर जंगलों को काटा गया है। मनुष्य अपनी सुख-सुविधाओं को प्राथमिकता तो दे रहा है, मगर अंधकारमय भविष्य की तरफ कदम भी बढ़ा रहा है। एकाधिकारवादी औद्योगिक विकास की दिशा में कदम बढ़ाते वैश्विक राष्ट्रों ने पर्यावरण की सुरक्षा को दोयम दर्जे की चीज बना डाला है। बढ़ती आबादी के लिए भोजन व अन्य मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना किसी चुनौती से कम नहीं है। आजादी के पहले देश की आबादी सिर्फ 30 करोड़ थी। 1951 के बाद आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। 1951-81 भारत में विस्फोटक अवधि के रूप में जाना जाता है।

स्वतंत्रता मिलने के बाद केंद्रीकृत नियोजन प्रक्रिया द्वारा नागरिकों की सामाजिक एवं आर्थिक दशा में सुधार होने लगा, जिससे शिशु मृत्यु दर में कमी आई थी। देश में जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए प्रयास जारी हैं। बढ़ती आबादी को बोझ न समझ कर उसे मानव संसाधन के रुप में विकसित करने की दिशा में काम करने की जरूरत है। भारत जैसे विकासशील देशों में आबादी का एक बड़ा हिस्सा उचित प्रबंधन के अभाव में बेरोजगारी की समस्या सहन करने को मजबूर है। यदि उन्हें रूचि के अनुसार प्रशिक्षित किया जाए, आवश्यक कौशल, कला, निपुणता का संचार किया जाय तो बड़ी जनसंख्या बोझ ना बनकर भारत को विकसित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकेगी।

इसके अतिरिक्त जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है। चीन एवं जापान जैसे विकसित देशों ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए ठोस कदम उठाकर इस दिशा में सार्थक काम किया है। परिवार नियोजन और हम दो हमारे दो जैसे नारों से जन जागरूकता बढ़ाने की कोशिश भी की गई, मगर इन अभियान के बावजूद जनसंख्या पर उल्लेखनीय नियंत्रण नहीं हो सका। वर्ष-2048 में भारत की आबादी विश्व में सर्वाधिक होने का अनुमान लगाया गया है। भारत जैसे विकासशील देश में सीमित संसाधनों से ही नागरिकों के लिए कोई योजना बनाई जा सकती है। ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण भारत के लिए बड़ी गंभीर चुनौती है।

जनसंख्या नियंत्रण के लिए नागरिकों को जागरूक किए बगैर बेहतर परिणाम मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। नागरिकों को जनसंख्या वृद्धि से होने वाले नुकसान के विषय में गंभीरता से बताना होगा। हालांकि समय के साथ सोच में बदलाव आया है। अब छोटा परिवार, सुखी परिवार की धारणा जोर पकड़ रही है। इसके परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। ज्यादातर परिवार 2 बच्चों की महत्ता को जान रहे हैं। भविष्य में निश्चित रूप से इसके सुखद नतीजे भी सामने आएंगे। जनसंख्या नियंत्रण की देशव्यापी मुहिम से प्रत्येक घर-परिवार और नागरिक को जोड़ना होगा।