कृषि कानूनों की वापसी : सरकार की दरियादिली या सियासी मजबूरी ?

लेखक:- प्रदीप गुप्ता
(समाजसेवी एवं कारोबारी हैं। व्यापारी एकता समिति संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष है और राजनीतिक एवं सामाजिक विषयों पर बेबाकी से राय रखते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित कर तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया। इन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर देशभर में किसान पिछले करीब एक साल से विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे। मोदी सरकार अब तक तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन अब उन्होंने उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत कुछ राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाव से पहले तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा की है। पीएम मोदी का ये फैसला स्वागत योग्य कदम है। इस फैसले का स्वागत दिल खोलकर किया जाना चाहिए।

क्योंकि ये अन्नदाताओं के त्याग, तपस्या, बलिदान की जीत है। ये उनके फौलादी इरादों की जीत है। ये उनके उस चट्टानी हौसलों की जीत है जो हाड़कंपाती सर्दी, मूसलाधार बारिश और फिर चिलचिलाती गर्मी में भी जरा भी टस से मस नहीं हुआ। इन्हीं अन्नदाताओं को कभी खालिस्तानी, कभी पाकिस्तानी, कभी आतंकवादी, कभी बिचैलिया, कभी आढ़तिया और कभी फर्जी किसान करार दिया गया। बावजूद इसके अन्नदाताओं का हौसला जरा भी नहीं डिगा और वह तमाम मुश्किलों और दुश्वारियों को झेलते हुए अपनी मांगों को लेकर अनशन करते रहे।

पिछले एक साल से जारी अन्नदाताओं के इस आंदोलन के दौरान 700 से ज्यादा किसान भाइयों ने अपनी शहादत दी। उनकी शहादत को मैं सलाम करता हूं। प्रणाम करता हूं। लेकिन ये सवाल भी पूछता हूं कि हिसाब इसका भी होना चाहिए कि इन मौतों का जिम्मेदार कौन है? इस आंदोलन के दौरान कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले। इस दौरान एक बार पीएम ने अपने संबोधन में कहा था कि किसान भाई सिर्फ एक कॉल की दूरी पर हैं। लेकिन कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान होने तक वो फोन कॉल नहीं आया। बहरहाल प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए कहा, ”आज मैं आपको, पूरे देश को, ये बताने आया हूं कि हमने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है।

इस महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में, हम इन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा कर देंगे। हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझाने में कामयाब नहीं हो पाए। पीएम मोदी ने ये भी कहा कि एमएसपी को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए, ऐसे सभी विषयों पर, भविष्य को ध्यान में रखते हुए, निर्णय लेने के लिए, एक कमेटी का गठन किया जाएगा। मेरा मानना है कि कमेटी के गठन की पहल एक अच्छा कदम है। लेकिन इसमें किसानों की भागीदारी भी होना बेहद जरूरी है, ताकि पिछली गलतियों से सबक लिया जा सके।

2019 में चुनाव जीतने के बाद पहली बार बीजेपी को इस तरह के विरोध-प्रदर्शन का सामना करना पड़ा और उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं। किसान संगठनों और सरकार के बीच 11 दौर की बातचीत हुई थी, लेकिन सरकार कानून वापस लेने को तैयार नहीं थी और ये बातचीत बेनतीजा रही थी। मोदी सरकार का यह राजनीतिक कदम है क्योंकि उसे उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों के विधान सभा चुनाव में किसानों की नाराजगी से चुनावी नुकसान की आशंका थी। ऐसे में चुनाव से पहले यह कदम उठाया गया है। खासकर राजनीतिक लिहाज से अहम उत्तर प्रदेश और पंजाब में तो पार्टी को खासा नुकसान के आसार दिखाई दे रहे थे।

दिल्ली के गाजीपुर, सिंघु और टिकरी बॉर्डर के आसपास रहने वाले लोग भी अब राहत की सांस ले रहे हैं कि शायद जल्द ही उन्हें रोजाना घंटों ट्रैफिक जाम से निजात मिल सकती है। मोदी सरकार ने इन कानूनों को जून 2020 में सबसे पहले अध्यादेश के तौर पर लागू किया था। इस अध्यादेश का पंजाब में तभी विरोध शुरू हो गया था। इसके बाद सितंबर के मॉनसून सत्र में इस पर बिल संसद के दोनों सदनों में पास कर दिया गया। किसानों का विरोध और तेज हो गया। हालांकि इसके बावजूद सरकार इसे राष्ट्रपति के पास ले गई और उनके हस्ताक्षर के साथ ही ये बिल कानून बन गए। तभी से पंजाब-हरियाणा से शुरू हुआ किसान आंदोलन 26 नवंबर तक दिल्ली की सीमा पर पहुंच गया और आज तक यहां कई स्थानों पर किसान मौजूद हैं।

केंद्र सरकार द्वारा तीनों कानूनों को वापस लेने के फैसले के बाद विपक्ष ने सरकार पर निशाना साधा और किसानों को बधाई दी। इस कड़ी में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, किसानों के सत्याग्रह ने अहंकार को हरा दिया है। अन्याय पर इस जीत के लिए बधाई। उधर, कृषि कानूनों की वापसी का पीएम द्वारा ऐलान कर दिए जाने के बावजूद आंदोलनकारी किसान पीछे हटने को राजी नहीं हैं। किसानों ने कुछ और मांग सरकार को बताई हैं। इन मांगों के पूरा होने तक आंदोलन समाप्त न करने की घोषणा की गई है।