यात्रा संस्मरण : दृढ़ इच्छाशक्ति से मंजिल पाना मुश्किल नहीं

लेखक : गौरव पांडेय 
(लेखक हैं। सामाजिक, पर्यावरण एवं धार्मिक कार्यों से जुड़े रहते हैं। यह लेख उदय भूमि में प्रकाशन के लिए लिखा है।)

यदि इच्छाशक्ति मजबूत हो तो मंजिल पाना मुश्किल नहीं है। बड़े-बुजुर्गों की यह बात सोलह आने सच्ची है। ऑफिस में बॉस और अन्य सहकर्मियों के साथ माता वैष्णो देवी के दर्शन करने जाने का कार्यक्रम बना। यह तय हुआ कि हम इनोवा से जाएंगे और तमाम कैलकुलेशन के बाद एक सीट इनोवा में बच गई थी। मैंने आव देखा ना ताव और अपने भाई को बरेली से दिल्ली बुला लिया कि हम मां वैष्णो के दर्शन के लिए चल रहे हैं। वह भी खुशी-खुशी जल्द दिल्ली आ गया। अब दर्शन करने जाने का दिन आ गया और हमारे पास फोन आया कि गाड़ी आ गई है, तुम लोग तैयार रहो।

हमने अपना सारा सामान पैक करके बस ताला लगाने की कसर छोड़ी थी और उसी समय एक फोन आया, जिसमें बॉस ने बताया कि इनोवा कुछ दूसरी तरह की आ गई है, जिसमें पीछे की सीट पर चार की जगह तीन ही लोग बैठ सकते हैं। ऐसे में स्वाभाविक था कि मेरा भाई ही नहीं जाएगा। मायूस चेहरे से मेरे भाई ने मेरी तरफ देखा और पूछा भैया अब क्या होगा? मैंने कहा कुछ नहीं होगा, ताला लगाओ और हम चल रहे हैं। बॉस को मैंने फोन किया कि आप लोग निकलिए, क्योंकि मैं अपने भाई को नहीं छोड़ सकता। मैंने उसे दूर से बुलाया है।

फिर हमने टैक्सी की और हम सीधे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए और वहां जाकर हमने पता लगाया कि कौन सी ट्रेन जम्मू की तरफ जा रही है। टिकट लेने के लिए लंबी-लंबी लाइनें थी, ऐसे में प्लेटफार्म टिकट लेकर हम प्लेटफार्म पर चले गए और ट्रेन के सामने ही टीटीई बाबू का इंतजार करने लगे कि टीटीई बाबू से बात करके हम कुछ व्यवस्था कर लेंगे। ट्रेन चलने का समय नजदीक आ गया और टीटीई बाबू कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। ऐसे में मैंने डब्बे के आगे चिपकाए जा रहे रिजर्वेशन चार्ट को देखना शुरू किया और एक डिब्बे में 2 सीटें एक चार्ट में खाली दिखाई दी।

मैंने भाई को कहा कि तुम इस डिब्बे की खाली सीट पर बैठो और मैं टीटीई बाबू को ढूंढता हूं, ट्रेन का सिग्नल ग्रीन हो गया, लेकिन टीटीई बाबू नहीं आये। हम खाली सीटों पर जाकर बैठ गए। चेकिंग स्क्वायड रिजर्व डिब्बों में साधारण टिकट वालों की कड़ाई से चेकिंग कर रहा थ। चूंकि हम खाली सीटों पर बैठे थे, इसलिए उन्हें शक नहीं हुआ और हम से कुछ नहीं पूछा। अब हम उत्सुकतावश टीटीई बाबू को खोज रहे थे। करीब 15-20 मिनट बाद टीटीई बाबू आये और हमने उन्हें अपनी सारी व्यथा सुनाई।

टीटीई बाबू ने द्रवित होकर हमें भी माता के दर्शन के लिए प्रोत्साहित किया और कहा कि मोदीनगर में ट्रेन रूकेगी और वहां उतरते ही सामने ही टिकट विंडो आएगी, वहां से तुरंत ही टिकट ले लेना। और देखिये हुआ भी ऐसा ही, हमारे डब्बे के सामने ही टिकट विंडो आई और मैंने झट जाकर जम्मू की टिकट ली। अब दूसरी टेंशन शुरू हो गई कि यह बर्थ हमें अलॉट हो जाए, हमने टीटीई बाबू से निवेदन किया लेकिन उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं बच्चे, आप बैठो। आप दर्शन करने जा रहे हो, अगर इस बर्थ का कोई आएगा तो मैं देख लूंगा। अन्यथा मैं अभी सबकी चेकिंग करने के बाद आपका टिकट बना लूंगा। हम निश्चिंत होकर सो गए और पता ही नहीं चला कि जगाधरी कब आ गया। जगाधरी से दूसरे टीटीई बाबू की ड्यूटी थी और उन्होंने भी हमें सोता देखकर हमें कुछ नहीं कहा और हम सीधे जम्मू पहुंच गए। हमारे पिताजी के सहपाठी जम्मू में सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे, उन्हें पिताजी ने फोन कर बता दिया था कि बच्चे आ रहे हैं, दर्शन के लिए। उन्होंने सहर्ष हमें जम्मू में अपने घर बुलाया। चाची जी ने हमें स्वादिष्ट नाश्ता और भोजन कराया, साथ ही हमारे लिए दर्शन करने की वीआईपी व्यवस्था की।

हम जम्मू से कटरा निकले और कटरा से हमने माता वैष्णो देवी की चढ़ाई शुरू की और हम शाम छह बजे माता के दरबार में वीआईपी गेट से होकर दर्शन के लिए पहुंच गए। तभी अचानक हम क्या देखते हैं कि हमारे बॉस अपनी माता जी को पालकी में लेकर वैष्णो माता मंदिर के प्रांगण में पहुंचे हैं। हमें वहां देख वह हतप्रभ हो गए और हक्का-बक्का हो करके बोले कि तुम लोग यहां कैसे? हमने बिना देर लगाए कहा कि जब माता बुलाए तो बेटा दौड़ा चला आए, यह तो माता का आशीर्वाद था कि हम यहां पहुंच गए।

उन्होंने हमारी हिम्मत की दाद दी और प्रशंसा के साथ ही उन्होंने कहा कि मेरे मन में बहुत अफसोस था कि तुम लोग नहीं आ पाए, लेकिन अब मैं बहुत ही खुश हूं कि तुम लोग आ गए और अब मैं माता के दर्शन भी अच्छे से कर पाऊंगा, अन्यथा मेरे मन में कष्ट था। दर्शन करने के बाद हम सुबह कटरा पहुंचे। अब दिल्ली वापस जाने की जद्दोजहद बाकी थी, क्योंकि हमारे पास ट्रेन की रिजर्व टिकट नहीं थी। इसलिए मैं रिजर्वेशन सेंटर की विंडो की लाइन में लग गया। तभी किसी भले मानस ने मुझसे पूछा कि आप क्यों लाइन में लगे हो, कहां की टिकट लेनी है।

तो मैंने उन्हें बताया कि मुझे आज की ही दिल्ली की टिकट लेनी है। तो उसने कहा कि आज की टिकट तो अब आपको करंट काउंटर पर ही मिलेगी या आप टीटीई रूम में संपर्क करो। यदि कोई सीट खाली होगी तो आपको वह अलॉट कर देगा। मुझे लगा कि यह क्या नई विपदा आ पड़ी, मैं जैसे तैसे पता करते हुए करंट रिजर्वेशन हेतु टीटीई रूम में पहुंचा और वहां मुझे जानकर आश्चर्य हुआ कि शाम की ट्रेन में ही फॉरेन कोटा की सीट खाली थी, जो मुझे टीटीई साहब ने तुरंत दे दी और मेरा रिजर्वेशन हो गया। आराम से स्लीपर में लेट कर हम अगले दिन सुबह दिल्ली पहुंच गए।

मैंने अगले दिन ही ऑफिस ज्वाइन कर लिया और वहां जाकर पता चला कि अभी बॉस और अन्य साथी वापस नहीं पहुंचे हैं। अगले दिन पता चला कि उन लोगों को 2 से 3 दिन की छुट्टी चाहिए, क्योंकि लगातार गाड़ी में बैठने से और चढ़ाई चढ़ने से उनके पैरों में सूजन आ गई है और वह आॅफिस आने में असमर्थ हैं। उस समय से मेरे मन में ख्याल आ रहे थे कि देखो जो होता है वह अच्छे के लिए होता है। यदि हम भी इसी गाड़ी में गए होते तो हमारा भी यही हाल हुआ होता।

किंतु हम उस दुविधा से भी बच गए और हमें दर्शन भी बहुत अच्छे से हुए। मेरे छोटे भाई ने इस यात्रा अनुभव से बहुत बड़ी सीख ली कि यदि हम मन में कुछ भी पक्के से ठान लें तो हम उसे करके दिखा सकते हैं। और जब हम अपनी मदद खुद करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो हमारे सभी रास्ते खुल जाते हैं और प्रकृति एवं ईश्वरीय शक्तियां भी हमारा साथ देती हैं, जिससे हम अपनी मंजिल तक पहुंच पाते हैं।