यूपी चुनाव : अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग

उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव चरणबद्ध तरीके से चल रहे हैं। चुनाव के 2 चरण पूर्ण हो चुके हैं। तीसरे चरण की सभी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। यूपी में कुल 7 चरण में चुनाव कराया जाना है। सत्ता की जंग में मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) के बीच माना जा रहा है। वैसे कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), आम आदमी पार्टी (आप) और एआईएमआईएम भी दम-खम दिखाने में कतई पीछे नहीं हैं। 2 चरण का चुनाव कमोवेश शांतिपूर्ण तरीके से निपट चुका है। किसी प्रकार की हिंसा या भारी उपद्रव की कोई खबर सामने नहीं आई है।

इसका श्रेय निश्चित रूप से चुनाव आयोग और सुरक्षा बलों को दिया जाना चाहिए। यह दोनों बॉडी स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव कराने को अपना शत-प्रशित योगदान दे रही हैं। पहले व दूसरे चरण के चुनाव के बाद खासकर भाजपा और सपा दोनों के अपने-अपने दावे सामने आए हैं। दोनों दलों का दावा है कि वह तेजी से सत्ता की तरफ बढ़ रहे हैं। मतदाताओं का भरपूर सहयोग उन्हें मिल रहा है। हालाकि चुनावी ऊंट किस करवट बैठता है, यह देखने और जानने के लिए अभी कुछ दिन तक इंतजार करना पड़ेगा।

दरअसल अभी 5 चरण का चुनाव होना बाकी है। 10 मार्च को मतगणना के उपरांत असल तस्वीर साफ हो सकेगी। मतदाताओं को लुभाने के लिए सभी दल लुभावने वादे कर रहे हैं। घोषणा पत्रों में जिस प्रकार से फ्री सुविधाओं का जिक्र किया गया है, मानो चुनाव न चल रहे हों बल्कि कोई सैल लग रही है। आमतौर पर बड़ी कंपनियां अपना माल बेचने को लुभावने ऑफर देती हैं। ठीक उसी प्रकार राजनीतिक दल भी मतदाताओं का समर्थन पाने को तरह-तरह के दावे और वादे कर रहे हैं। घोषणा पत्रों से इतर इन दलों में जुबानी जंग भी तेज होती जा रही है।

भाजपा जहां सपा पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप लगा रही है, वहीं सपा जवाबी हमला कर भाजपा पर बंटवारे की राजनीतिक करने का आरोप मढ़ रही है। सपा द्वारा दागी उम्मीदवारों को टिकट दिए जाने को भी भाजपा ने मुद्दा बना रखा है। इस मुद्दे को प्रत्येक चरण में चुनावी जनसभा के दौरान उछाला जा रहा है। जबकि सपा भाजपा पर राजनीतिक द्वेष के तहत अपने नेताओं और समर्थकों को फंसाने का आरोप मढ़ रही है। चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगे, कैराना से पलायन, हिजाब विवाद, बहुबलियों और भू-माफिया पर कार्रवाई के अतिरिक्त महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मामले भी काफी उछाले जा रहे हैं।

वैसे जैसे-जैसे चुनावी चक्र आगे बढ़ रहा है, दोनों दलों की बेचैनी भी बढ़ती साफ दिखाई दे रही है। शिवपाल यादव बेशक अपमान को भूलाकर और अपनी पार्टी को कुर्बान कर अखिलेश यादव के साथ खड़े हो गए हैं, मगर उनका दर्द रह-रहकर सामने आ रहा है। कारण भी साफ है कि शिवपाल ने सपा से 100 सीट पर टिकट मांगे थे। बाद में यह संख्या 50 पहुंची। बात न बनने पर और नीचे आई, मगर अखिलेश ने शिवपाल को सिर्फ एक टिकट थमाया। जबकि वह दावा कर रहे हैं कि 15 से 22 सीट ऐसी हैं, जहां यदि वह अपने उम्मीदवार उतारते तो जीत निश्चित थी। अखिलेश यादव ने शिवपाल को ज्यादा सीट पर टिकट क्यों नहीं दी, इसे लेकर भी सियासत में तरह-तरह की चर्चाएं सुनने को मिल रही हैं।

विधान सभा चुनाव में बसपा की उदासीनता भी मतदाताओं को रास नहीं आ रही है। चुनाव में भागीदारी पर बसपा की तैयारियों पर निरंतर सवाल उठ रहे हैं। पहली बार ऐसा है, जब बसपा मुखिया मायावती में चुनाव को लेकर जोश नजर नहीं आ रहा है। हालाकि विरोधियों के दावों को वह सिरे से खारिज करती आ रही हैं। उनका कहना है कि बसपा की चुनावी तैयारियां इसी प्रकार होती रही हैं। उनके पास चुनाव में खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। बसपा से ज्यादा सक्रिय कांग्रेस नजर आती है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने विधान सभा चुनाव के मद्देनजर यूपी में कई माह पहले से दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी थी।

वह हर उस मुद्दे को जोर-जोर से उठाती आ रही हैं, जिससे योगी सरकार को घेरने का मौका मिले। आम आदमी पार्टी (आप) पहली बार यूपी विधान सभा चुनाव में किस्मत आजमा रही है। आप की तरफ से राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने कमान संभाल रखी है। आप संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल यूपी में उतने सक्रिय नहीं हैं, जितने वह पंजाब में नजर आ रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी मानी जा रही है कि पंजाब में आप को सत्ता में आने की प्रबल संभावना दिखाई दे रही है।

एआईएमआईएम प्रमुख एवं सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी विपक्षी दलों की मुश्किलें बढ़ा रखी हैं। ओवैसी ने कुछ छोटे-छोटे राजनीतिक दलों से गठबंधन कर अपने प्रत्याशी उतारे हैं। जिनके समर्थन में वह जमकर प्रचार-प्रसार भी कर रहे हैं। ओवैसी अपनी पार्टी के सीएम फेस की घोषणा भी कर चुके हैं। यह यह भी बता चुके हैं कि संभावित सरकार का रूवरूप कैसा होगा। यानी ओवैसी काफी उत्सुक हैं।

यूपी विधान सभा चुनाव में प्रत्येक राजनीतिक दल की अपनी रणनीति है। रणनीति को ध्यान में रखकर हरेक दल चल रहा है। कुल मिलाकर भाजपा के सामने सत्ता को बचाने की चुनौती है, वहीं सपा के समक्ष सत्ता में वापसी की चुनौती है। पिछले पांच साल से सत्ता से बाहर चल रहे अखिलेश यादव को मालूम है कि यदि अगले पांच साल भी वह सत्ता से दूर रहे तो पार्टी बिखरने और कमजोर होने का खतरा और ज्यादा बढ़ जाएगा।