भगवान परशुराम ने शस्त्र और शास्त्र के समन्वय का दिया संदेश

विष्णु के दशावतारों में से छठे अवतार माने जाने वाले भगवान परशुराम का सामाजिक योगदान यह था कि उन्होने अन्याय, अत्याचार, अनाचार, कदाचार के विरूद्ध खडा होकर उसका त्वरित मुकाबला किया। परशुराम ने मदांध हैहय वंशीय राजाओं का संहार किया, जो शोषक और आततायी हो चुके थे। परशुराम के उस व्यक्तित्व का उल्लेख ही नहीं हुआ जो वस्तुत: पृथ्वी पर वैदिक संस्कृति का प्रचार- प्रसार चाहता था। वह वैदिक संस्कृति जिसे आधुनिक युग के तमाम यूरोपीय स्कॉलरों ने भी आज की समाज व्यवस्था से अधि वैज्ञानिक और उन्नत माना है। भारत में ग्राम्य संस्कृति के जन्मदाता भी परशुराम ही थे और देश के अधिकांश ग्राम उनके ही बसाए हुए हैं। उनका लक्ष्य इस जीव सृष्टि को इसकी प्राकृतिक संपदा और सुंदरता के साथ जीवंत बनाये रखना था। उनका मानना था कि राजा को वैदिक संस्कृत का मात्र दूत होना चाहिए, न कि शासक। वह वर्ण या किसी ऐसी प्रणाली, जिसमें शासक और शासित का अस्तित्व हो, के विरुद्ध थे, वस्तुत: वह आद्य क्रांतिकारी थे।

कोई भी कर्म जो जन-कल्याण की भावना से किया जाता है, वह यज्ञ स्वरूप हो जाता है और इससे धर्म की प्रतिष्ठा होती है। इस संसार में जब-जब आसुरी शक्तियों ने मानव जाति को अत्यधिक कष्ट पहुंचाया, तब-तब श्री हरि विष्णु भगवान ने अपने स्वरूप का सृजन किया। इसी कड़ी में भगवान विष्णु ने भृगुकुल में जमदग्रि ऋषि पिता तथा माता रेणुका के पुत्र के रूप में भगवान परशुराम के रूप में जन्म लिया। भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। ये चिरंजीवी होने से कल्पांत तक स्थायी हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छ: ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान विभु स्वयं अवतीर्ण हुए। इस प्रकार भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है। ब्रम्हाजी के सात मानस पुत्रों में प्रमुख महर्षि भृगु के चार पुत्र धाता, विधाता, च्यवन और शुक्राचार्य तथा एक पुत्री लक्ष्मी हुईं। च्यवन के पुत्र मौर्य तथा मौर्य के पुत्र ऋचीक हुए। महर्षि जमदग्नि इन्हीं ऋचीक के पुत्र थे।

वे अत्यंत तेजस्वी एवं धर्मपरायण ऋषि थे। इनका विवाह महाराजा प्रसेन्नजित (जिन्हें महाराज रेणु भी कहा जाता था) की पुत्री रेणुका से हुआ। पति परायणा माता रेणुका ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमश: वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम सबसे छोटे होने पर भी बाल्यकाल में ही अत्यंत तेजस्वी प्रतीत होते थे। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि पुत्रोत्पत्ति के निमित्त इनकी माता और विश्वामित्र जी की माता को प्रसाद मिला था, जो दैववशात् आपस में बदल गया था। इस कारण रेणुका सुत परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे, जबकि विश्वामित्र जी क्षत्रिय कुलोत्पन्न होते हुए भी ब्रह्मर्षि हो गए। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ।

तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है। जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम प्रचोदयात। वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यों में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

हिन्दू ग्रन्थों में कई प्रमाण हैं जब जन्मजात व्यवसायों को त्याग कर कईयों ने दूसरे व्यवसायों में श्रेष्ठता और सफलता प्राप्त की थी। इन अपवादों में परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं जो जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु उन्हों ने क्षत्रियों के व्यवसाय अपनाये और ख्याति प्राप्त की। विशवमित्र क्षत्रिय थे, वाल्मिकि शूद्र थे, किन्तु आज वह महर्षि की उपाधि से पूजित तथा स्मर्णीय हैं। अपनी जन्म जाति से नहीं। भारत के हिन्दू समाज में ऐसे उदाहरण भी हैं जब कर्मों की वजह से उच्च जाति में जन्में लोगों को घृणा से तथा निम्न जाति में उत्पन्न जनों को श्रद्धा से स्मर्ण किया जाता है। रावण जन्म से ब्राöण था किन्तु क्षत्रिय राम की तुलना में उसे एक दुष्ट के रुप में जाना जाता है। मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था में वर्ण बदलने का भी विधान था। जैसे ब्राह्मणों को शास्त्र के बदले शस्त्र उठाना उचित था उसी प्रकार धर्म परायण क्षत्रियों के लिये दुष्ट ब्राöणों का वध करना भी उचित था। भगवान परशुराम ने अनीति और अत्याचार के विरुद्ध शस्त्र उठाए थे। भगवान परशुराम शस्त्र और शास्त्र के बड़े ज्ञाता थे। उन्होंने समाज को शस्त्र और शास्त्र के समन्वय का संदेश दिया था।