लेखिका : गरिमा पंत
(वरिष्ठ पत्रकार, समाजविज्ञानी एवं लेखिका हैं। महत्वपूर्ण मुद्दों पर बेबाकी से अपनी राय रखती हैं।)
देश में जहां एक ओर सरकारी नौकरियां कम होती जा रही हैं, वहां दूसरी तरफ सरकारी नौकरियों में संविदा कर्मियों को रखने का चलन बढ़ता जा रहा है। संविदा कर्मियों को भत्तों की सुविधा नहीं दी जाती, ना ही उन्हें रेगुलर कर्मचारियों की भांति पीएफ, ईएसआई, ग्रेच्युटी जैसी सुविधाएं मिलती हैं। आज की तारीख में यदि हम देखें तो सभी सरकारी विभागों में संविदा कर्मी कार्य कर रहे हैं। रेगुलर कर्मचारियों को भर्ती करने में विभागों को बहुत खर्चा उठाना पड़ता है। ऐसे में यह कहना गलत ना होगा कि संविदा कर्मी ना हो तो विभागों एवं कार्यालयों को चलाना बहुत ही मुश्किल हो जायेगा।
प्राय: यह देखा जाता है कि जो रेगुलर कर्मचारी होते हैं, वह संविदा कर्मियों पर ज्यादा कार्य की जिम्मेदारी डाल देते हैं और स्वयं कार्य करने से बचने की कोशिश करते हैं। रेगुलर कर्मचारियों के मन में यह बात रहती है कि यह संविदा कर्मी है और इसे हम कभी भी निकाल सकते हैं। इसलिए दबाव में रहकर काम करेगा। अब जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है और संविदा कर्मियों को अपने कार्यालय में तीन चार या पांच साल से ऊपर होता जा रहा है और उन्हें कोई सुविधाएं नहीं दी जा रही हैं, ऐसे में उनके मन में रोष व्याप्त होना सामान्य बात है।
संविदा कर्मी अधिकारियों से मिलते हैं और अपनी बात रखते हैं, मगर प्राय: यह देखा गया है कि सरकारी विभागों में ऊपर से कोई आदेश या नियमों में परिवर्तन ना होने की वजह से वह भी कुछ नहीं कर पाते। जब संविदा कर्मियों के मन में रोष काफी ज्यादा बढ़ जाता है तो वह हड़ताल की प्रस्तावना रखते हैं और उसके लिए अनुमति लेना चाहते हैं तो उन्हें सांत्वना दे दी जाती है कि हम लोग विचार कर रहे हैं और कुछ करेंगे, लेकिन अभी तक यही देखा गया है कि कोई भी नतीजा संविदा कर्मियों को सुविधाएं या वेतन बढ़ाने को लेकर नहीं निकला है। संविदा कर्मी सरकार से यही अनुरोध करते रहे हैं कि वह पूरी मेहनत से कार्य करते हैं और अगर सही मायने में कहा जाए तो वह रेगुलर कर्मचारी से भी ज्यादा मेहनत करते हैं। ऐसे में उन्हें भी मौलिक सुविधाओं का अधिकार मिलना चाहिए और उनकी तनख्वाह समय के अनुसार बढ़नी चाहिए।
संविदा कर्मियों का दर्द
कोई क्यों नहीं समझता दर्द हमारा
हम भी इंसान हैं, योगदान भी है हमारा
सरकारी हो या निजी, कैसा भी हो दफ्तर
हम काम कर रहे, बिना थक कर
परमानेंट मौज ले रहे, काम अपना थोप कर
संविदा कर्मी पिस रहे परमानेंट की धौंस पर
मुंह खोलना भी लाजमी नहीं, फैसला हो जाता तुरंत
कभी घट जाती सैलरी या नौकरी भी जाती रही
कौन समझेगा दर्द हमारा, अधिकारी मस्त
संविदा कर्मी मिल गया, सस्ते में मारा
हड़ताल की करो बात तो मिल जाता लॉलीपॉप
कि जल्द ही करते हैं कुछ पर होता कुछ है नहीं
संविदा कर्मी घुट-घुट कर जी रहा यूं ही
सच बात तो यह है, दुगना काम कर भी
कुछ हासिल नहीं, गर संविदा कर्मी ना हो
तो ना चल सकता कोई ऑफिस
हो जाएगी बहुत ही मुश्किल
जो चले गए ये छोड़कर ऑफिस