अजीब वाकया, तमाशबीन पब्लिक और अकेला मैं

गौरव पांडेय
(लेखक वरिष्ठ स्वस्थ्यविद्, सामाजिक, पर्यावरण एवं धार्मिक कार्यों से जुड़े रहते हैं। यह लेख उदय भूमि में प्रकाशन के लिए लिखा है।) इन विषयों पर अक्सर लिखते रहते है। यह लेख उदय भूमि के लिए लिखा है)

आज सुबह एक अजब वाकया हुआ, जिसने मुझे इस घटना को लिखने पर मजबूर कर दिया। बड़े दिनों बाद आज सुबह मैं पार्क की सैर पर गया। सैर करने के बाद जब मैं वापस लौट रहा था तो पार्क के अंत में एक हाट है जो अमूमन बंद होता है, मगर उसके गेट का चैनल थोड़ा सा खुला हुआ था। कौतूहल वश मैं अंदर चला गया। अंदर जाकर मैंने देखा वहां चंद लोग आसन एवं व्यायाम कर रहे हैं। तभी अचानक से कउवो का शोर सुनाई दिया। अरे यह क्या था, सारे कौवे एक घायल पंछी को पेड़ पर से उतर-उतर कर चोंच मार रहे थे। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।

सामने ही एक दंपति चादर बिछाए आसन और व्यायाम कर रहे थे और वह आराम से यह सब देख रहे थे। मन में विचार आया इंसान, ऐसा कैसे हो सकता है, फिर सोचा कलयुग है और यह चरम पर है, इसलिए तू उस तरफ ध्यान मत दे और इस पक्षी को बचाने की कोशिश कर। मैंने आनन-फानन में कुछ कंकड़ एकत्र किए और कौवों को वहां से हटा दिया। मैंने देखा पंछी उड़ नहीं पा रहा था और घायल था। उस समय मेरे पास कुछ भी नहीं था। ऐसे में मैं क्या करूं, समझ नहीं पाया। इधर-उधर नजर दौड़ाई तो देखा कुछ बंद पड़ी दुकानों में से एक दुकान में शीशे का पार्टीशन लगा है और उसमें पर्दा भी लगा है और मैं उसके अंदर जा भी सकता हूं।

मैं तुरंत उस दुकान के अंदर गया और मैं हतप्रभ रह गया। उस दुकान के अंदर एक कागज का खाली बैग पड़ा था। मैंने उसे फाड़कर उसमे उस पंछी को बाहर से उठाकर उस दुकान के अंदर रख दिया। ऊपर एक छोटी सी स्लैब भी बनी हुई थी और उस पर दो जालियां रखी थी। मैंने उस पंछी को जालियों के पीछे कर दिया। मुझे लगा अब यह पक्षी यहां सुरक्षित है। फिर मन में आया कि यह घायल है, इसको पानी की जरूरत होगी। आश्चर्य जनक वहां एक पानी की बोतल पड़ी थी जो लगता था कुछ समय से प्रयोग में नहीं लाई गई है।

मैंने उस बोतल का ढक्कन खोल कर उसमें जो पानी था वह भरकर पक्षी के सामने रख दिया। अब मन में यह विचार आया कि अगर यह नहीं उड़ सका तो यह खाएगा क्या? मेरे पास एक रुपया भी नहीं था कि मैं कुछ खरीद सकूं। मुझे ध्यान आया बाहर कुछ लोग कबूतरों को दाना डालते हैं। मैं उस जगह पर पहुंचा तो देखा दाने वाले की दुकान खुल चुकी थी। वहां एक महिला थी। मैंने उसे बताया कि एक पक्षी घायल है। मुझे उसके खाने के लिए कुछ दाने दे दो। बिना हिचकिचाये उसने दो मुट्ठी दाने मुझे दे दिये। खुशी से फूला ना समाया मैं और उन दानों को लेकर पक्षी की तरफ जल्दी-जल्दी पहुंचा।

मैंने देखा पक्षी अब उड़ने की कोशिश कर रहा है, और दुकान में मैंने चारों तरफ उसके खाने के दाने रख दिए और ईश्वर से यही कामना करते हुए कि यह जल्दी स्वस्थ होकर उड़ने लगे मैं अपने घर की ओर प्रस्थान कर गया। इस वाकये में जिस तरह से क्रमश: चीजें होती चली गई वह मेरे दिमाग को कौधांती रही और मैं सोचता रहा कि ये सब कैसे हुआ, एक के बाद एक तार कैसे जुड़ते चले गए।