अफगानिस्तान पर ‘वेट एंड वॉच’ की स्थिति में भारत

अफगानिस्तान में प्रतिदिन करवट लेते हालात पर भारत बेहद चौकन्ना है। वह जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेना चाहता है। इसके चलते अब तक पत्ते नहीं खोले गए हैं। भारत फिलहाल वेट एंड वॉच की भूमिका में है। इस पर राजनीतिक विश्लेषकों और रक्षा विशेषज्ञों की जुदा राय है। केंद्र सरकार के कदम से कोई सहमत है तो कोई असहमति व्यक्त कर रहा है। सरकार की विदेश नीति पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। संकट में घिरे अफगानिस्तान में परिस्थितियां सामान्य होने में अभी वक्त लगना तय है।

तालिबान की रणनीति ने समूची दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया है। काबुल पर कब्जा करने की तालिबान की स्पीड ने खुफिया एजेंसियों की विश्वसनीयता को आईना दिखा दिया है। अफगानिस्तान में 2 दशक बाद आखिर तालिबान का राज लगभग आ चुका है। सिर्फ सरकार के गठन की औपचारिकताएं होनी रह गई हैं। इस बीच भारत की असल रणनीति का अब तक खुलासा नहीं हो सका है। केंद्र सरकार फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। वह जल्दबाजी में ऐसा कोई कदम उठाने के मूड में नहीं है, जिसके परिणाम भविष्य में घातक साबित हों।

मोदी सरकार ने विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल को अफगानिस्तान मिशन की जिम्मेदारी सौंप रखी हैं। एस जयशंकर और अजीत डोभाल की काबिलियत पर किसी को शक नहीं है। दोनों काफी चतुर और बुद्धिमान शख्सियत हैं। समय-समय पर दोनों ने अपनी योग्यता को साबित किया है। अफगानिस्तान मिशन की जानकारी देने के लिए मोदी सरकार ने विपक्षी दलों के साथ महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श किया है। सरकार ने अपनी रणनीति से विपक्ष को अवगत कराया है।

अच्छी बात यह है कि विपक्ष ने न सिर्फ सरकार के बल्कि विदेश मंत्री एस जयशंकर के काम की भी प्रशंसा की है। मौजूदा परिस्थितियों में सरकार और विपक्ष का एकजुट रहना जरूरी है। यदि सरकार कहीं कोई गलती करती भी है तो कम से कम विपक्ष उस पर ध्यान आकर्षित करा सकता है। विपक्ष की राय से चीजें ज्यादा बेहतर और सरल हो सकती हैं। देश-दुनिया में भी इसका अच्छा संदेश जाएगा। अफगानिस्तान में देर-सवेर तालिबान द्वारा सत्ता की बागडोर संभाल ली जाएगी। इसके लिए तालिबान के नेता दिन-रात कोशिशों में जुटे हैं।

वहां की राजनीति का निकट भविष्य में भारत पर असर पड़ना तय है। अभी तालिबान नेताओं के वादों और इरादों पर भरोसा करना ठीक नहीं है। ज्यादातर देशों ने साफ कर दिया है कि वह तालिबान के कार्यों और कर्मों को आंकने के बाद वह किसी नतीजे पर पहुंचेंगे। यानी इन देशों का संदेश साफ है कि अफगानिस्तान में समावेशी सरकार होनी चाहिए तभी सरकार को मान्यता देने पर विचार किया जाएगा। ठीक इसी तरह भारत भी किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले तालिबान को आंकना चाहता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता लेने को तालिबान खासा बेचैन है। उसे मालूम है कि बगैर विदेशी सहायता के सत्ता का संचालन करना टेड़ी खीर साबित होगा।

सबसे पहले वह खुद को पहले के मुकाबले बदलने का दावा कर रहा है। हालाकि अधिकांश देश और खुद अफगान की जनता को तालिबान पर भरोसा नहीं है। चूंकि सभी को यह प्रतीत होता है कि अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा मुश्किलें महिलाओं की बढ़नी तय हैं। इसके संकेत भी नजर आने लगे हैं। इसके इतर पाकिस्तान की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। उसे लगता है कि आने वाले समय में नई दिल्ली और काबुल के रिश्ते अच्छे होना संभव नहीं है। जबकि तालिबान की तरफ से भारत को लेकर जो बयान अब तक दिए जा रहे हैं, वह पाकिस्तान की मंशा और ख्यालों से मेल नहीं खाते हैं।

तालिबान ने भारत की अफगानिस्तान में भूमिका को अह्म माना है। इस क्षेत्र में वह भारत की अहमियत को भली-भांति जानता है। उसने यह भी कहा है कि भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार होना जरूरी है। अफगानिस्तान की जनता पाकिस्तान के मुकाबले भारत को अधिक महत्व देती है। फिलवक्त मोदी सरकार के लिए तालिबान को साधना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं हैं। चुनौतियों बेशक कम नहीं हैं, मगर प्रभावी रणनीति के जरिए संकट से बाहर निकलना मुमकिन है। चीन व रूस जैसे ताकतवर मुल्क तालिबान को साधने में सफल रहे हैं। ऐसे में नई दिल्ली को ठोस रणनीति के साथ आगे बढ़ना होगा।

भारत को जरूरत पड़ने पर नरम और जरूरत होने पर गरम रूख को अपनाने की आदत डाल लेनी चाहिए। इमरान खान सरकार की एक महिला मंत्री का यह कहना कि भविष्य में तालिबान उन्हें जम्मू-कश्मीर जीतकर दे देगा, सिर्फ बयानभर नहीं है। इस बयान के असल मायने को जानने की आवश्यकता है। पाकिस्तान लंबे समय से जम्मू-कश्मीर पर गलत नजरें टिकाए बैठा है। इस्लामाबाद को अब लगता है कि तालिबान के सहारे वह जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने में सफल हो जाएगा। जबकि तालिबान साफ कर चुका है कि वह अपनी धरती का इस्तेमाल किसी दूसरे देश के खिलाफ नहीं होने देगा।

तालिबान का मिशन भी अफगानिस्तान की सरहदों तक सीमित रहेगा। हालाकि इस आतंकी संगठन से हमेशा सतर्क रहने की जरूरत है। चूंकि पाकिस्तान के साथ-साथ चीन भी अब तालिबान प्रेमी हो चुका है। यह दोनों देश मिलकर भारत के खिलाफ तालिबान का इस्तेमाल करने का षडयंत्र रच सकते हैं। मोदी सरकार को पिछले कुछ साल के भीतर कई इम्तिहान देने पड़े हैं। तमाम मुश्किलों और अवरोधों के बाद सरकार को कामयाबी जरूर मिली है। चूंकि यदि इरादे नेक हों तो भगवान भी साथ देने से पीछे नहीं हटता है। अफगानिस्तान में पिछले 20 साल के भीतर भारत ने भारी-भरकम निवेश किया है। इस निवेश को अधर में छोड़ा जाना भी ठीक नहीं है।