आतंकवाद के खिलाफ दुश्मन को दोस्त बनाएगा अमेरिका

अफगानिस्तान से रूखसत होने के बावजूद अमेरिका की चिंता बरकार है। चिंता का कारण कुछ खतरनाक आतंकवादी संगठन हैं। अलकायदा और आईएसआईएस (खुरासान) जैसे आतंकी ग्रुप्स के एक बार फिर सक्रिय और मजबूत होने की संभावना बढ़ गई है। यह ग्रुप पश्चिमी देशों के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। इसके मद्देनजर अमेरिका ने भविष्य की तैयारियां शुरू कर दी हैं। वह कांटे से कांटा निकालने की रणनीति पर काम कर रहा है। इस रणनीति को कामयाब बनाने को वह तालिबान की मदद लेगा। यानी जिस तालिबान को वह कभी पसंद नहीं करता था, आज उसी के सहारे की जरूरत महसूस हो रही है।

अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार के गठन की कवायद तेज हो गई है। इसके लिए ईरान मॉडल को अपनाने की बात सामने आई है। ईरान में सर्वोच्च नेता के बाद प्रधानमंत्री का नंबर आता है। ठीक उसी तरह अफगानिस्तान में भी सर्वोच्च नेता की नियुक्ति होने की उम्मीद है। तालिबान के प्रमुख लीडर को यह पद सौंपे जाने पर विचार चल रहा है। अमेरिका ने निर्धारित डेडलाइन यानी 31 अगस्त को अफगानिस्तान को छोड़ दिया था। अंतिम दिन अमेरिकी राजदूत और सैन्य कमांडर को लेकर विमान ने उड़ान भरी थी। पिछले करीब 20 साल से अमेरिका इस क्षेत्र में जंग लड़ रहा था। यूएस के चले जाने के बाद अफगानिस्तान में अलकायदा और आईएसआईएस (खुरासान) जैसे आतंकी संगठन एकाएक सक्रिय हो गए हैं। दोनों संगठन काफी खतरनाक हैं।

काबुल एयरपोर्ट पर पिछले दिनों आत्मघाती हमला कराने में आईएसआईएस (खुरासान) का हाथ था। वैसे इस आतंकी संगठन को तालिबान विरोधी माना जाता है। समय-समय पर तालिबान और आईएसएस (खुरासान) के बीच हिंसक संघर्ष और तीखी जुबानी जंग होती रही है। अमेरिका को आशंका है कि तालिबान राज में इन दोनों संगठनों को फलने-फूलने का मौका मिल सकता है। बेशक तालिबान ने अफगानिस्तान की धरती पर आतंकी संगठनों को पनपने न देने का भरोसा पूरी दुनिया को दिलाया है, मगर अधिकांश देश इससे कतई संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें डर है कि अलकायदा और आईएसआईएस कहीं तालिबान के साथ कोई गुप्त डील न कर लें। इसका खामियाजा खासकर पश्चिम देशों को भुगतना पड़ेगा।

अलबत्ता अमेरिका ने नई रणनीति को अपनाया है। इसके तहत वह लोहे से लोहा काटने की रणनीति अपनाने जा रहा है। अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकियों से निपटने को ठोस कार्ययोजना बन रही है। आतंकी संगठनों की कमर तोड़ने को जल्द एयर स्ट्राइक किए जाने की तैयारी है। इस अभियान में तालिबान की सहायता लेने पर विचार किया गया है। अमेरिका को मालूम है कि तालिबान की मदद के बगैर अफगानिस्तान में आतंकियों को गहरी चोट पहुंचना नामुमकिन होगा। अमेरिकी अफसरों का मानना है कि तालिबान और आईएसआईएस (खुरासान) में अफगानिस्तान के भीतर तालमेल नहीं है। दोनों एक-दूसरे के धुर विरोधी है।

ऐसे में आईएस को कमजोर करने को तालिबान का साथ जरूरी जान पड़ता है। तालिबान ने कुछ दिन पहले विभिन्न जेलों में बंद आतंकियों को रिहा कर दिया था। यह कदम ठीक नहीं था। माना जा रहा है कि आईएसआईएस (खुरासान) के कम से कम 2 हजार लड़ाके भी जेलों से बाहर आ चुके हैं। यह लड़ाके आने वाले समय में अफगानिस्तान में तबाही मचा सकते हैं। अमेरिका के अलावा भारत की टेंशन भी बढ़ी हुई है। एक आतंकी संगठन का बयान नई दिल्ली के लिए चिंता पैदा कर गया है। आतंकी संगठन ने बयान में कहा है कि इस्लाम विरोधियों से भूमि को खाली कराने के मिशन की शुरुआत होनी चाहिए। इसमें जम्मू-कश्मीर भी शामिल है।

भारत और अमेरिका की सुरक्षा एजेंसियों ने काफी समय पहले आशंका जाहिर की थी कि अफगानिस्तान में तालिबान का राज आने पर जम्मू-कश्मीर में माहौल बिगड़ सकता है। सीमापार से कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ में वृद्धि हो सकती है। इस बीच खबर है कि सीमापार तालिबान समर्थित 50 लड़ाकों को घुसपैठ के लिए एक्शन मोड में रखा गया है। खबर है कि इन आतंकियों को पाकिस्तान किसी तरह कश्मीर में भेजने को उतावला है। हालाकि तालिबान बार-बार कह चुका है कि जम्मू-कश्मीर विवाद से वह इत्तेफाक नहीं रखता है।

तालिबान के नेताओं ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को भारत-पाकिस्तान के मध्य का मामला करार दिया है, मगर तालिबान के कुछ नेता जिस तरह पाकिस्तान का महिमामंडन कर रहे हैं, उससे इस बात की आशंका है कि भविष्य में वह कश्मीर मुद्दे पर इस्लामाबाद के साथ आने से पीछे नहीं हटेंगे। इसके लिए भारत को ज्यादा सतर्क रहना होगा। अफगानिस्तान में चीन, रूस और पाकिस्तान की मजबूत पैठ निश्चित रूप से भारत-अमेरिका के लिए परेशानी का सबब बनेगी। चीन-पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध खराब चल रहे हैं। जबकि रूस और अमेरिका के रिश्तों में कड़वाहट किसी से छुपी नहीं है। अमेरिका से भारत की नजदीकी रूस को रास नहीं आ रही है। नतीजन वह चीन व पाकिस्तान के साथ संबंधों को अधिक तवज्जो दे रहा है।

तालिबान के प्रति भारत के नजरिए में भी बदलाव आ रहा है। भारत के राजदूत ने कतर में तालिबान के नेताओं से मुलाकात की है। भारत को अपनी अफगानिस्तान रणनीति में बदलाव करना पड़ रहा है। चूंकि कारोबार की दृष्टि से अफगान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। अफगानिस्तान की धरती पर आतंकवाद को बढ़ावा न मिले, इसके लिए तालिबान को भी अपने वादे पर खरा उतरना होगा। तभी वह दुनिया का विश्वास जीत पाएगा। अन्यथा हालात बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। फिलवक्त अमेरिका का ध्यान अलकायदा और आईएसआईएस (खुरासान) के नेटवर्क को ध्वस्त करने पर है। यदि इन आतंकी संगठनों को पुन: उबरने का अवसर मिल गया तो आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई कमजोर हो जाएगी।